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________________ पर कर मेरु समान, आप रहे रज कण जिसा। ते मानव धन जान, मृत्यु लोक में राजिया।। राजिया कवि कहता है कि मनुष्यलोक में धन्यवाद का पात्र वही है जो दूसरों को मेरु के समान उच्च बनाकर आप स्वयं रज-कण के समान रहता है। जिसमें दूसरों को मेरु के समान उच्च बनाने की शक्ति है वह स्वयं कितना ऊंची श्रेणी का होना चाहिए? दूसरों की दृष्टि में चाहे जितना ऊंचा हो परन्तु वह अपने आपको रज के कण के समान तुच्छ ही समझता है। वास्तव में ऐसा महापुरुष महान् है और धन्य है। जो लोग अच्छे-अच्छे, मूल्यवान् एवं सुन्दर वस्त्राभूषण पहन कर निकलते हैं, उनकी भावना यही होती है कि लोग उन्हें अच्छा और बड़ा आदमी समझें। मगर यदि अच्छे कर्त्तव्य के साथ अच्छे गहने-कपड़े हों तब तो कदाचित् ठीक भी है। अगर भीतरी दुर्गुणों को छिपाने के लिए ही बढ़िया वस्त्र और आभूषण धारण कर लिए, भीतर पाप भरा रहा तो ऐसा मनुष्य धिक्कार का पात्र ही गिना जायेगा। बल्कि ऐसे आदमियों की प्रशंसा करने वाला भी मूर्ख समझा जायेगा। धन्य तो वही है जो बड़ा होकर के भी रज कण बना रहता है। गांधीजी के विषय में अमेरिका के एक पादरी ने लिखा था कि संसार में सब से बड़ा मनुष्य मोहनदास करमचंद गांधी है। यद्यपि संसार में बड़े-बड़े बादशाह हैं, एक से बढ़कर एक धनवान् हैं, वे मनुष्य भी हैं, फिर गांधीजी को ही सब से बड़ा क्यों बतलाया है? जिन्हें संसार के सब मनुष्यों में बड़ा बतलाया जा रहा है, वे बड़े हो करके भी रहन-सहन में भिखारी की तरह रहते हैं। क्या इस उदाहरण से कवि का कथन सत्य साबित नहीं होता? स्मरण रखिए, आप अपने को बड़ा दिखाने के लिए जितनी चेष्टा करते हैं, उतनी ही चेष्टा अगर बड़ा बनने के लिए करें तो आप में दिखावटी बड़प्पन के बदले वास्तविक बड़प्पन प्रकट होगा। तब अपना बड़प्पन दिखाने के लिए आपको तनिक भी प्रयत्न न करना होगा; यही नहीं बल्कि आप उसे छिपाने की चेष्टा नहीं करेंगे। यह बड़प्पन इतना ठोस होगा कि उसके मिट जाने की भी आशंका न रहेगी। ऐसा बड़प्पन पाने के लिए महापुरुषों के चरित्र का अनुसरण करना चाहिए और जिन सद्गुण रूपी पुष्पों से उनका जीवन सौरभमय बना है उन्हीं पुष्पों से अपने जीवन को भी सुरभित बनाना चाहिए। बाहरी दिखावट, ऊपरी टीमटाम और अभिमान, यह सब तुच्छता की सामग्री है। इससे महत्ता बढ़ती नहीं है, प्रत्युत पहले अगर आंशिक महत्ता हो - श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १५६
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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