SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किया। मुट्ठी का प्रहार होते ही देव गिर पड़ा और अपने असली रूप में आ गया। भगवान् महावीर उस पर चढ़े हुए उसी प्रकार निर्भयतापूर्वक खेलते रहे। यद्यपि महावीर ने अत्यन्त साधारण रूप से ही देवता पर मुट्ठी-प्रहार किया था, तब भी देव उससे इतना व्यथित हुआ कि अपने मूल स्वरूप में आने पर भी वह कुबड़ा बन गया। . .भगवान् के पराक्रम की परीक्षा लेकर देव को इन्द्र की बात पर प्रतीति हुई। उसने दोनों हाथ जोड़ कर कहा 'भगवान्! आप सचमुच ही वैसे वीर हैं, जैसा इन्द्र ने कहा था। आपका पराक्रम असाधारण है। आपकी वीरता स्तुत्य है। आपकी निर्भयता प्रशंसनीय है। आपका बल अद्वितीय है। आपकी शक्ति के सामने देव और दानव की भी शक्ति नगण्य है। इस प्रकार प्रशंसा करके देव वहां से चला गया। महावीर ने मानवीय सामर्थ्य का जो विराट स्वरूप प्रदर्शित किया उससे अनेकों में नवीन शक्ति और नये साहस का संचार हुआ। भगवान् की इस पराक्रमशीलता के कारण ही उन्हें पुरुषों में सिंह के समान कहा गया है। पुरुषवर-पुण्डरीकसिंह में वीरता है, मगर जगत्-कल्याणकारिता नहीं है। उसके द्वारा संसार का कल्याण नहीं होता। अतः सिंह से भगवान् की विशेषता बतलाने के लिए भगवान् को अन्य अनेक उपमाए दी गई हैं। उनमें से एक उपमा पुण्डरीक कमल की है। भगवान् 'पुरिसवर पुण्डरीए' हैं- अर्थात् पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान हैं। ___ भगवान् महावीर के लिए हजार पांखुड़ी वाले पुंडरीक कमल की उपमा क्यों दी गई है? इस उपमा से भगवान् के किस धर्म का बोध कराया गया है? इसका उत्तर यह है कि जैसे पुंडरीक-कमल सफेद होता है, उसी प्रकार भगवान् में उज्ज्वल तथा प्रशस्त लेश्या और ध्यान हैं। जैसे इस कमल में मलीनता नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् भी सब प्रकार की मलीनता से विमुक्त हैं। कमल की उपमा देने का आशय यह है कि कृत्रिम उज्ज्वलता, उज्ज्वल होकर भी मलीन बन जाती है, जब कि अकृत्रिम उज्ज्वलता स्वाभाविक है-उसमें मलीनता नहीं आती। कमल जब तक कमल कहलाता है तब तक वह अपनी उज्ज्वलता नहीं त्यागता। इसी प्रकार भगवान् की ६२ श्री जवाहर किरणावली
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy