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________________ सच्चं 'सच्चेण फुरइ कित्ती, 'सच्चेण 'जणंमि 'होइ वीसासो । "सग्गापवग्गसुहसंपयाउ जायंति सच्चेण ।।228।। दया संस्कृत अनुवाद तया पलालभूतया पदकोट्या पठितया किम् ? | यत्र- 'परस्य पीडा न कर्तव्या' एतावन्न ज्ञातम् ।।225।। एकस्य निजजीवितस्य कृते बहव्यो जीवकोट्यः । ये केऽपि दुःखे स्थापयन्ति, तेषां जीवितं किं शाश्वतम् ? ||226।। यदुदग्रमारोग्यम् , अप्रतिहतं स्फुटमाज्ञेश्वरत्वम् ।। अप्रतिरूपं रूपम्, उज्ज्वलतरा कीर्तिः, धनं, यौवनम् । दीर्घमायुः, अवञ्चनः परिजनः, सुपुण्याऽऽशयाः पुत्राः; तत् सर्वं सचराचरेऽपि जगति सत्यम्, नूनं दयायाः फलम् ।।227।। सत्येन कीर्तिः सत्यम्, सत्येन जने विश्वासो भवति । सत्येन स्वर्गापवर्गसुखसम्पदो जायन्ते ।।228।। दया-हिन्दी अनुवाद वे छिलके जैसे करोड पद पढ़ने से भी क्या ?, कि जिनसे- दूसरों को पीड़ा दुःख नहीं देना चाहिए' इतना भी ज्ञान नहीं मिले । (225) जो एक मात्र अपने जीवन हेतु अनेक करोड़ों जीवों को दुःख देता है, क्या उसका जीवन भी शाश्वत है ? = सदाकाल रहनेवाला है ? | (226) जो सुंदर आरोग्य, जिसका प्रतिकार न किया जा सके वैसी स्पष्ट आज्ञा का स्वामित्व, अनुपम रूप, निर्मलतर कीर्ति, धन, जवानी, दीर्घायु, सरल सेवकवर्ग, पवित्र आशयवाले पुत्र, यह सब इस परिवर्तनशील जगत में मिलता है, सचमुच यह सब दया का ही फल है । (227) सत्य से कीर्ति (फैलती) है, सत्य से लोगों में विश्वास उत्पन्न होता है, सत्य से स्वर्ग और अपवर्ग के सुख की संपत्ति भी मिलती है । (228) प्राकृत पलए विमहापुरिसा, पडिवन् अन्नहानहु कुणंति । गच्छंति न 'दीणयं (खलु), 12कुणंति "नहु 1 पत्थणाभंग ।।229 ।। - २१८
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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