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________________ यथेहाऽर्थावबोधं विना शास्त्रपठनम् , सौभाग्येन विनाऽहङ्कारकरणम् ; सम्भ्रमं विना दानं, सद्भावेन विना पुरन्ध्रीरमणं, स्नेहं विना भोजनं, एवं विबुधाः शुद्धां भावनां विना धर्मसमुद्यममपि(वन्ध्यं) ब्रवीन्ति ||224|| हिन्दी अनुवाद जो व्यक्ति दूसरों के गृहद्वार = घर के दरवाजे छोड़ता है वह कभी भी परस्त्री का सेवन नहीं करता है, जो स्वस्त्री में संतुष्ट है वह मानव सबका रक्षक है । (220) ___ आग में गिर जाना श्रेष्ठ है, निर्मल-उत्तम कार्य द्वारा मरना उत्तम है, परन्तु ग्रहण किये हुए व्रत का भंग अथवा स्खलित शीलवान व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ नहीं है । (221) धन के प्रति अथवा स्वरूपवान स्त्रियों के प्रति जो बुद्धि है, वह बुद्धि यदि जिनेश्वर के धर्म में हो तो सिद्धि = (मोक्ष) हथेली में ही रही हुई है । (222) जगत् में तर्करहित विद्वान्, व्याकरण नहीं जाननेवाला पंडित और भाव रहित धर्म-ये तीन सचमुच हँसी के पात्र बनते हैं । (223) ____ जैसे इस जगत में अर्थ के ज्ञान बिना शास्त्र का अभ्यास, सौभाग्य बिना अभिमान करना, आदर बिना दान, सदाव बिना पत्नी के साथ क्रीड़ा, प्रीति बिना भोजन निष्फल है, वैसे ही पण्डित पुरुष शुद्धभावरहित धर्म के उद्यम को भी निष्फल कहते हैं । (224) दया प्राकृत किं 'ताए "पढिआए, पयकोडीएपलालभूआए । जत्थित्ति यं 12 13 नायं, 'प्रस्स पीडान कायव्वा ।।225।। 'इक्कस्स कएनिअजीविअस्स, 'बहुआओ जीवकोडीओ। दुक्खे'ठवंति जे 'केइ, ताणं 12किं सासयंजीअं ।।226।। 'जं आरुग्ग मुदग्गमप्पडिहयं, आणेसरत्तं फुडं, रूवं' अप्पडिरूवमुज्जलतरा, "कित्ती"धणं जुव्वणं । 13दीहं 14आउ 15अवंचणो परिअणो, 18पुत्ता "सुपुण्णासया, 19 20सव्वं 21सचराचरंमि वि22जए, 23नूणं 24दयाए 25फलं ।।227।। -२१७ -
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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