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________________ सस्कृत अनुवाद ब्राह्मणाः क्षत्रिया : वेश्या:, चाण्डाला अथवा वर्णसङ्कराः । एषिका वैशिकाः क्षुद्राः, ये चाऽऽरम्भनिश्रिताः ।।96।। परिग्रहनिविष्टानां, तेषां वैरं प्रवर्धते । ते आरम्भसम्भृताः कामाः, दुःखविमोचका न ||97।। आधातकृत्यमाधाय, विषयैषिणोऽन्ये ज्ञातयः । तद् वित्तं हरन्ति, कर्मवान् कर्मभिः कृत्यते ||98।। माता पिता स्नुषा भ्राता, भार्या औरसाश्च पुत्राः । ते स्वकर्मणा लम्पतस्तव त्राणायाऽलं न ||99।। परमार्थानुगामिकमेतदर्थं सम्प्रेक्ष्य । निर्ममो निरहङ्कारो, भिक्षुर्जिनाऽऽहितं (जिनाख्यातं) चरेत् ।।100।। हिन्दी अनुवाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल अथवा वर्णसंकर जातिविशेष, शिकारी आदिजीवहिंसक, वणिक्, क्षुद्र और जो आरंभ में आसक्त हैं; परिग्रह में तल्लीन हैं, उन लोगों की वैरभावना बढ़ती है, अतः पापारम्भ से पुष्ट इच्छाएँ दुःख में से मुक्त करानेवाली नहीं होती हैं । (96, 97) अग्निसंस्कार, जलांजलिदान-पितृपिंड इत्यादि मृत्युक्रिया करके विषयसुख के अभिलाषी अन्य स्वजन उसका धन ले लेते हैं, इस प्रकार पापारम्भवाला जीव अपने कर्मों से ही दुःखी बनता है। माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी और अपने सगे पुत्र, अपने ही कर्मों से दुःखी बनते हैं, तुझे बचाने के लिए ये सब समर्थ नहीं होते हैं । (99) सम्यग्दर्शनादि मोक्ष और संयम में साथ में रहनेवाले हैं इस प्रकार विचार करके ममता और अहंकाररहित साधुको जिनेश्वर भ के बताये हुए मार्ग पर चलना चाहिए । (100) १५६
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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