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________________ 6. प्रा. सब्वे जीवा जीविउं इच्छन्ति, न मरित्तए, तओ जीवा न हंतवा । सं. सर्वे जीवा जीवितुमिच्छन्ति, न मर्तुम्, ततो जीवा न हन्तव्याः । हि. सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की नहीं, इस कारण जीवों को नहीं मारना चाहिए। 7. प्रा. परस्स पीडा न कायव्वा, इइ जेण न जाणिअं, तेण पढिआए विज्जाए किं ? | सं. परस्य पीडा न कर्तव्या, इति येन न ज्ञातं, तेन पठितया विद्यया किं ? | हि. अन्य को पीड़ा नहीं करनी चाहिए, यह वचन जिसको (जिसके द्वारा) ज्ञात नहीं है, उसके द्वारा पढ़ी हुई विद्या से क्या ? | प्रा. मुक्खत्थीहिं जीवदयामओ धम्मो करेअब्बो । सं. मोक्षार्थिभिर्जीवदयामयो धर्मः कर्तव्यः । हि. मोक्षार्थियों द्वारा जीवदयामय धर्म करने योग्य है । 9. प्रा. नाणेणं चिय नज्जइ, करणिज्जं तहय वज्जणिज्जं च । नाणी जाणइ काउं, कज्जमकज्जं च वज्जेउं ||31|| सं. ज्ञानेनैव करणीयं तथा च वर्जनीयं ज्ञायते च । ज्ञानी कार्यं कर्तुम् , अकार्यं च वर्जयितुं जानाति ||31 ।। हि. ज्ञान द्वारा ही करने योग्य तथा न करने योग्य का बोध होता है, ज्ञानी करणीय को करने और अकरणीय को नहीं करने बाबत जानता है। 10. प्रा. जं जेण पावियलं, सुहमसुहं वा जीवलोयम्मि । तं पाविज्जइ नियमा, पडियारो नत्थि एयस्स ||32।। सं. जीवलोके येन यत् सुखमसुखं वा प्राप्तव्यम् । तन् नियमात् प्राप्यते, एतस्य प्रतिकारो नाऽस्ति ||32।। हि. जीवलोक में जिसके द्वारा सुख अथवा दुःख प्राप्त करने योग्य है वह नियम से प्राप्त होता है उसका प्रतिकार नहीं हो सकता है । 11. प्रा. जम्मंतीए सोगो, वड्डन्तीए य वड्डए चिंता । परिणीआए दंडो, जुवइपिया दुक्खिओ निच्चं ।।33।। सं. जायमानायां शोकः, वर्द्धमानायां च चिंता वर्द्धते । परिणीतायां दण्डः, युवतिपिता दुःखितो नित्यम् ।।33।।
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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