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________________ 15. प्रा. वेसाओ धणं चिय गिण्हंति, न हु धणेण ताओ घिप्पन्ति । सं. वेश्या : धनमेव गृहणन्ति, न धनेन ताः गृह्यन्ते । - हि. वेश्याएँ धन को ही ग्रहण करती है, सचमुच वे धन से ग्रहण नहीं की जाती हैं। 16. प्रा. पूइज्जति दयालू जइणो, न हु मच्छवहगाइ । सं. पूज्यन्ते दयालवो यतयो न खु मत्स्यवधकादयः । हि. दयालु साधु पूजे जाते हैं, लेकिन मच्छीमार आदि नहीं । 17. प्रा. होइ गरुयाण गरुयं वसणं लोयम्मि, न उण इयराणं । जं ससिरविणो घेप्पंति, राहुणा न उण ताराओ ||22।। सं. लोके गुरुकाणां गुरुकं, व्यसनं भवति पुनरितरेषां न ।। यच्छशिरवी राहुणा गृह्येते, पुनस्तारा न ||22।। हि. जगत् में बड़ों = महापुरुषों को ज्यादा दुःख (कष्ट) होता है, अन्य को नहीं, जिस कारण चन्द्र और सूर्य राहु द्वारा ग्रसित होते हैं लेकिन तारे नहीं। 18. प्रा. जलणो वि घेप्पइ सुहं, पवणो भुयगो वि केणइ नएण | महिलामणो न घेप्पइ, बहुएहिं नयसहस्सेहिं ।।23।। सं. ज्वलनोऽपि सुखं गृह्यते, पवनो भुजगोऽपि केनापि नयेन । बहकैर्नयसहस्रः, महिलामनो न गृह्यते ।।23।। हि. अग्नि भी सुखपूर्वक ग्रहण किया जाता है, पवन और साँप भी किसी उपाय द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, लेकिन हजारों उपायों द्वारा स्त्री का मन ग्रहण नहीं किया जाता है। 19. प्रा. को कस्स एत्थ जणगो ?, का माया ? बंधवो य को कस्स ? | कीरंति सकम्मेहिं, जीवा अन्नुन्नरूवेहिं ।।24।। सं. अत्र कः कस्य जनकः ? का माता ?, कः कस्य बान्धवश्च ? | जीवा: स्वकर्मभिरन्योन्यरूपैः क्रियन्ते ||24|| हि. इस जगत् में कौन किसका पिता, कौन माता, कौन किसका भाई है ? जीव अपने कर्मों से ही अलग-अलग स्वरुपवाले किये जाते हैं ।।24।। 20. प्रा. सव्वस्स उवयरिज्जइ, न पम्हसिज्जइ परस्स उवयारो । विहलो अवलंबिज्जइ, उवएसो एस विउसाणं ।।25।। सं. सर्वस्योपक्रियेत, परस्योपकारो न विस्मर्येत । विह्वलोऽवलम्ब्येत, एष विदुषामुपदेशः ।।25।। हिसा - ८७
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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