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________________ पूर्व यानि 1000 ई0 पूर्व के लगभग माना जा सकता है रचनाएँ :- निरुक्तमें उल्लिखित इनके सिद्धांन्तोंके अनुसार इन्हें निरुक्तकार कहा जा सकता है। डा० जी० ओप की अपनी ग्रन्थ सूचीमें औपमन्यव रचित निरुक्तका उल्लेख है । अतः इनका निरुक्त ग्रन्थ भी होगा ही । इनके निरुक्त ग्रन्थकी उपलब्धि आज नहीं होती । यत्र तत्र इनके निर्वचन सिद्धान्त एवं प्रकार उपलब्ध होते हैं । इन उपलब्धियों के आधार पर पता चलता है कि इन्होंने अपने निरुक्त ग्रन्थमें निर्वचनों को ही मूल रूपमें स्थान दिया होगा । यास्क भी निर्वचनके अवसर पर ही इनका स्मरण करते हैं। निरुक्तकारोंके सम्बन्धमें एक सामान्य रणा सी बन गयी है कि वे निघण्टु की रचना पहले करनेके बाद इनके ही शब्दोंका निर्वचन निरुक्तमें करते थे। इस आधार पर औपमन्यव भी निघण्टुके रचयिता रहे होंगे । निर्वचन सिद्धान्त :- यास्कने विभिन्न स्थलों पर औपमन्यवका नाम लिया है । निरुक्तके प्रारम्भमें ही निघण्टु शब्दके निर्वचनमें इनका उल्लेख हुआ है।".. ..ते निगन्तव एव सन्तो निगमनात् निघण्टव उच्यन्ते इत्यौपमन्यवः ।' अर्थात् निघण्टु शब्द निगन्तुसे ही बना है। यह निगमन होनेसे निगन्तु होता हुआ निघण्टु बना । इस शब्दर्मे नि का अर्थ निश्चय ही तथा गन्तु का अर्थ मन्त्रार्थका बोध कराने वाला है। यहां ग के स्थान पर घ तथा त के स्थान पर ट वर्ण हो गया है। स्पष्ट है ये महाप्राणीकरण एवं मूर्धन्यीकरण के सिद्धान्त को मानते हैं। साथ ही साथ इस निर्वचनसे यह भी पता चलता है कि ये निर्वचनकी तीन वृत्तियोंको स्वीकार करते हैं, अतिपरोक्षवृत्ति, परोक्षवृत्ति तथा प्रत्यक्षवृत्ति । उक्त निर्वचनमें निघण्टु अतिपरोक्षवृत्ति है, निगन्तु परोक्षवृत्ति है तथा निगमयितृ प्रत्यक्ष वृत्ति । औपमन्यवकी निर्वचन प्रक्रियासे स्पष्ट है कि निर्वचनके क्षेत्र में इनका दृष्टिकोण अत्यन्त सूक्ष्म है । उपर्युक्त तीन प्रकारकी वृत्तियाँके अन्तर्गत सभी शब्दोंके निर्वचन समाहित हैं । यास्कभी इन वृत्तियाँको स्वीकार करते हैं। दण्ड शब्दके निर्वचनमें औपमन्यवका विचार है कि दमन करनेके कारण दण्ड कहलाता है— 'दमनादित्यौपमन्वयः " । इसके अनुसार इस शब्दमें दम् उपशमे धातुका योग है - दम् - द - दन्त - दण्ड । परुषे शब्दके निर्वचनमें - पर्ववतिभास्वति इति 'औपमन्यवः'' अर्थात् ये प्रकाश वाले हैं। पंचजनके क्रममें इनका विचार द्रष्टव्य है— चत्वारः वर्णा निषादः पंचम इति" अर्थात् निषादको ५५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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