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________________ युक्त हैं। शेष निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे उपयुक्त हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार द्वितीय निर्वचन संगत माना जायगा व्याकरणके अनुसार ग्रसु अदने धातुसे ड:२३ प्रत्यय कर या गृवन् सम्भक्तौ शब्दे च से ग्रावन् शब्द बनाया जा सकता है। यास्कके समय पत्थरका प्रयोग विविध रूपोंमें होता था। लोग इसे विविध उपयोगके लिए अपने हाथोंमें रखते थे। युद्धके लिए इसका अधिक प्रयोग होता था। इन सभी अर्थोंको स्पष्ट करनेके लिए यास्कने विविध धातुओंकी कल्पना की है। (१५) श्लोक :- इसका अर्थ होता है श्रवणयोग्य, पद्य, छन्द। निरुक्तके अनुसार श्लोकः शृणोते: अर्थात् यह शब्द श्रु श्रवणे धातुके योगसे निष्पन्न होता हैश्रु-श्रोक-श्लोक श्रूयते इति श्लोक: र का ल में परिवर्तन हो गया है। र का ल होना भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। इस निर्वचनका अर्थात्मक आधार संगत है। व्याकरणके अनुसार श्लोक संघाते धातुसे अच्२४ या घञ्प्रत्यय कर श्लोकः शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें भी यह शब्द पद्यवन्ध वश्या यशके अर्थमें प्रयुक्त होता है।५ अनुष्टुप् छन्द श्लोकके नामसे भी अभिहित है१६ वाल्मीकिके मुखसे प्रथम श्लोक अनुष्टुप्में ही निकला।२७ ... (१६) घोष :- यह आवाजका वाचक है। निरुक्तके अनुसार घोषो घुष्यते: अर्थात् यह शब्द घुष् विशब्दने धातुके योगसे निष्पन्न होता है। क्योंकि यह ध्वनियुक्त है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। माषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार घुष् धातुसे घच् प्रत्यय कर घोषः शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग आभीर पल्लीके अर्थमें भी होता है।२८ गोपालकोंकी ध्वनि विशेष भी घोषके नामसे ज्ञात होता है। . (१७) नाराशंस :- यह कुछ मन्त्रोंके समुदायका नाम है। निरुक्तके अनुसारयेन नराः प्रशंस्यन्ते स नाराशंसो मन्त्रः अर्थात् जिन मन्त्रों से मनुष्योंकी प्रशंसा की जाय उसे नराशंस मन्त्र कहा जाता है तथा नराशंस ही नाराशंस कहलाता है। यह निर्वचन तद्धित पर आधारित है। अर्थ स्पष्ट करना ही मात्र इस निर्वचनका उद्देश्य है। व्याकरणके अनुसार-नर+ आ-शंस्-कर्मणि घञ्-नराशंस: अण=नाराशंस: बनाया जाता है।२९ भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। (१८) बाल :- यह बालक का वाचक है। निरुक्तके अनुसार (१) वालो वलवर्ती भर्तव्यो भवति अर्थात् वलवान के संरक्षणमें रहने के कारण बाल कहलाता है तथा वह भरण पोषणके योग्य होता है। वलवर्तीसे वालः या भृ ४२७:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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