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________________ आदित्य भेद (सूर्य) के अर्थमें होता है।४९ आचार्य शाकपूणि त्वष्टाका अर्थ अग्नि करते हैं अग्निरिति शाकपूणि:१२ प्रथम एवं द्वितीय निर्वचनके अनुसार भी त्वष्टा अग्निका वाचक है क्योंकि अग्नि शीघ्र ही व्याप्त हो जाती है तथा कान्ति युक्त होती है। अग्निके अर्थ में त्वष्टाका प्रयोग ऋग्वेदमें भी प्राप्त होता है।५० कुछ आचार्योंके अनुसार त्वष्टा अन्तरिक्ष (मध्यम) स्थानीय माने जाते हैं क्योंकि निघण्टुमें वे मध्य स्थानीय देवताओंमें गिने जाते हैं।५१ मध्यस्थानीय त्वष्टा वायुका वाचक है। बढ़ईके अर्थमें त्वष्टाका निर्वचन त्वक्ष तनूकरणे धातुसे माना जायगा क्योंकि बढ़ई लकड़ी छीलनेमें दक्ष होता है। व्याकरणके अनुसार त्वक्ष् तनूकरणे धातुसे तृच् प्रत्यय कर त्वष्ट-त्वष्टा शब्द बनाया जा सकता है। नि. ४।४ में त्वष्टा सूर्यका तथा १०१३ में वायुका वाचक है। (२४) आवि :- यह प्रकाश या प्रकटंका वाचक है। निरुक्तके अनुसार आविरावेदनात अर्थात् यह शब्द आ + विद धातुके योगसे निष्पन्न होता है। यह आवेदन करने वाला है या प्रकट होने वाला है, सबको प्रकाशित करने वाला है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार आ+ अव+ इसन प्रत्यय कर आविस् शब्द बनाया जा सकता है।५२ लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्रकट अर्थमें ही पाया जाता है तथा यह अव्यय के रूपमें प्रयुक्त होता है।५३ (२५) चारू :- इसका अर्थ होता है सुन्दर। निरुक्तके अनुसार चारू: चरते:२२ अर्थात् चारू शब्द चर् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है। क्योंकि सुन्दर वस्तु चित्रमें गति करती है या सुन्दरता चित्तको प्रभावित करती है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरण के अनुसार चर् गतौ धातुसे शुण्५४ प्रत्यय कर चारू शब्द बनाया जा सकता है। आंग्ल भाषाका Charm शब्द इसी चारू का ही विकसित रूप है। - (२६) जिह्यम् :- यह कुटिलका वाचक है। निरुक्तके अनुसार-जिह्म जिहीते: अर्थात् जिह्य शब्द हाङ् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है। कुटिल गमन करने वाला जिह्म कहलाता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग कुटिल अर्थके अतिरिक्त मन्द तथा तगर वृक्षविशेषके लिए भी होता है।५५ व्याकरणके अनुसार हा + मन् कर जिह्म शब्द बनाया जा सकता है।५६ (२७) रजिष्ठम् :- इस का अर्थ होता है - सरलतम, सुन्दरतम, ४१९:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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