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________________ क्रियासे सम्बन्ध स्पष्ट प्रतिलक्षित होता है । जायाशब्द में जन्प्रादुर्भाव धातुका योग है। पति ही जिसमें पुत्र रूपमें जन्म लेता है वही जाया है।' यह निर्वचन प्रत्यक्षवृत्याश्रित है। 6. वृत्रो ह वा इदं सर्वं वृत्वा शिश्ये यदिदमन्तरेण द्यावापृथिवी। स यदिदं सर्वं वृत्वा शिश्ये, तस्माद् वृत्रो नाम । यहां वृत्र शब्द व्याख्यात है। वृत्वासे वृत्रका सम्बन्ध माना गया है। यह निर्वचन कर्माश्रित है। वृत्रनाम पड़नेके कारणको स्पष्ट करना इस निर्वचनका उद्देश्य है। इसे परोक्ष वृत्याश्रित निर्वचन माना जायेगा। 7. “स उ एव मखः स विष्णुः । तत इन्द्रो मखवानभवत्। मखवान्हवैतं मधवानित्याचक्षते परोक्षम्।।” इसमें मधवान् शब्द विवेचित है । मख ही विष्णु है। फलतः इन्द्र मखवान् कहलाये । पुनः मखवान्ही परोक्ष रूपमें मधवान् हो गया। यहाँ महाप्राणवर्ण ख का महाप्राण ध में परिवर्तन पाया जाता है। यह निर्वचन परोक्षवृत्याश्रित है। 8. “स होवाच इन्धो वै नामैष योऽयन्दक्षिणेक्षन्पुरूषः तं वा एतमिन्ध सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेणैव ।। इस उद्धरणमें इन्द्र शब्दका निर्वचन हुआ है। उसने कहा इन्ध नाम ही यह है जो दक्षिण आंखमें पुरूष है, यही इन्ध बादमें इन्द्र कहलाया । इन्धसे इन्द्र शब्द परोक्षवृत्याश्रित है। यहां अल्पप्राणीकरण स्पष्ट है। 9. “एता शक्वर्य एताभिर्वा इन्द्रो वृत्रमशकद्धन्तुं तद्याभिर्वृत्रमशकद्धन्तुं तस्माच्छक्वर्यः । 11 यहां शक्वरी शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। इन शक्वरी ऋचाओंसे इन्द्र वृत्रको मारनेमें समर्थ हो सके । अतः जिनसे वृत्रको मारनेमें समर्थ हो सके उसीसे वह शक्वरी कहलाया। इस शब्दमें शक शक्तौ धातुका योग है। यह निर्वचन ऐतिहासिक आधार रखता है। यह भी परोक्ष वृत्याश्रित है। निरुक्तमें भी इस निर्वचनका उल्लेख है।12 10. “तेनाऽसुनाऽसुरानसृजत। तदसुराणामसुरत्वम् इस निर्वचनमें असुन् शब्दसे असुरका सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। २५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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