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________________ जाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें किम् + इदम् शब्दका योग है । किम् + इदम्किमिदिन-किमीदिन। यास्क कई शब्दांशोंके योग से भी निर्वचन करते हैं। इस प्रकारके कई शब्द निरुक्तमें आये हैं जिनके निर्वचनमें यास्क कई शब्दोंके योगकी कल्पना करते हैं। कई शब्द आपसमें सम्पृक्त होकर भी नए शब्दके रूपमें आ जाते हैं कीकट६० स्याल६ १ ऋत्विज्६२आदिके निर्वचनमें भी इसी प्रकार अनेक शब्दके अंशोंकी कल्पना की गयी है।यास्कका उपर्युक्त निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे पूर्ण संगत नहीं है। इनके अर्थात्मक आधार उपयुक्त हैं। ग्रासमैन इसका अर्थ दुष्ट राक्षस करते हैं । ६३ व्याकरणके अनुसार-किम्+इदानीम्+इनिप्रत्ययकर किमीदिनशब्द बनायाजा सकताहै। (७५) पिशुन :- इसका अर्थ होता है चुगली खाने वाला । निरुक्तके अनुसार १- पिशुन: पिंशते:५२ अर्थात् यह शब्द पिश् अवयवे दीपनायां च धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि वह सामान्य बातको भी बढ़ा-चढ़ा कर कहता है। दूसरे व्यक्तिकी त्रुटियों को प्रकाशित करता है । २- विपिंशतीतिवा५२अर्थात् वह विशिष्ट रूप से त्रुटियों को फैलाता है, विशेष रूपसे बातोंको बढ़ा चढ़ाकर कहता है । ६५इसके अनुसार भी इसमें पिश् धातुका ही योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसार पिश् अवयवे दीपनायां च धातुसे उनन् प्रत्यय कर पिशुनः शब्द बनाया जा सकता है। ६४ (७६) अमवान् :- इसके अनेक अर्थ होते हैं। निरुक्तके अनुसार १अमवानमात्यवान् २- अभ्यमनवान् ३- स्ववान् वा५२ अर्थात् अमवानका अमात्यवान अमात्यसे युक्त, अभ्यमनवान् रोगभूत दूसरोंको भयभीत करने वाला६६, स्ववान् आत्मीय व्यक्तियोंसे युक्त कई अर्थ होते हैं। अमात्यवानसे अमवान् में अमात्यका अम् तथा वतुप् प्रत्ययका योग है। अभ्यमनवान्-अभ्यमन्- अमन् + वतुप्- अमनवान्- अमवान्। स्ववान्-अम-स्व का वाचक + वतुप्-अम् +वतुप् अमवान्। सभी निर्वचन अनवगत संस्कारके हैं। ध्वन्यात्मक आधार किसीका पूर्ण संगत नहीं है। अर्थात्मक आधार सभी निर्वचनोंका संगत है। व्याकरणके अनुसार अम + वतुप् प्रत्यय कर अमवान् शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें इस शब्दका प्रयोग उक्त अर्थ में प्रायः नहीं देखा जाता। = (७७) पाजः-यह बलका वाचक है। निरुक्तके अनुसार पाजः पालनात् अर्थात् यह शब्द पाल् रक्षणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। क्योंकि अपनी एवं दूसरों की रक्षा इसीसे की जाती है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं है। इस ३५६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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