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________________ (५१) दीधितय :- यह अंगुलिका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - दीधितयोऽगुंलयो भवन्ति, धीयन्ते कर्मसु।५८ अर्थात् इन्हें कार्यों में लगायी जाती है। अतः दीधितय:का अर्थ होता है अंगुलियां। इसके अनुसार इस शब्दमें धी आधारे धातुका योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जाएगा। लौकिक संस्कृतमें दीधिति किरणके अर्थमें प्रयुक्त होता है। व्याकरणके अनुसार इसे दीधिङ् दीप्तिदेवनयोः धातुसे क्तिच६९ प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। यास्कने निरुक्तके तृतीय अध्यायमें दीधितिका अर्थ विधान किया है।७० विधान वाचक दीधिति:के लिए भी यह निर्वचन उपयुक्त माना जा सकता है। (५२) अरणी :- इसका अर्थ होता है काष्ठ विशेष, अग्नि पकड़ने वाली लकड़ी जिसके संघर्षणसे यज्ञकी अग्नि निकलती है। निरुक्तके अनुसार १- अरणी प्रत्यृत एने अग्नि:५८ अर्थात् इन दोनों में अग्नि वास होता है दो लकड़ियां परस्पर संघर्षणसे अग्नि प्रकट करती हैं, दोनोंमें ही अग्नि का वास है|७१ कार्यानुकूल कारणकी संभावना उपयुक्त है। इन निर्वचनोंके अनुसार अरणी शब्दमें ऋ गतौ धातुका योग है। २- सरणाज्जायत इति वा५८ अर्थात् संघर्षसे अग्नि जन्म लेती है। इसके अनुसार इस शब्दमें भी ऋ गतौ धातुका योग है। ऋ धातुका अर् गुण होकर आया है जो दोनों निर्वचनोंमें है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार दोनों निर्वचनोंको संगत माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार ऋ गति प्रापणयोः धातुसे अनि:७२ प्रत्यय कर अरणी शब्द बनाया जा सकता है। (५३) काणुका :- यह अनेकार्थक है एवं सरांसि तथा इन्द्रके विशेषणके रूपमें प्रयुक्त हैं। यास्क दोनोंके विशेषणके रूपमें अलग-अलग निर्वचन करते हैं। सरांसिके अर्थमें काणुकाके निर्वचन १- काणुका कान्तकानीति वा५८ अर्थात् प्रिय सरोवर। इसके । अनुसार काणुका शब्दमें कम कान्तौ धातुका योग है। कम क्त कान्त + क = कान्तकं काणुक - काणुका। २- क्रान्तकानीतिवा५८ अर्थात् ऊपर तक पूर्ण रूपमें भरे हुए (लवालव) सरोवर।७३ इसके अनुसार इसमें क्रमु पाद विक्षेपे धातु का योग हैक्रम् + क्त-क्रान्त+द-क्रान्तक -काणुका-काणुका। ३-कृतकानीतिवा५८ अर्थात्ऋत्विजों द्वारा संस्कार किया गया सरोवर। इसके अनुसार इस शब्दमें कृ करणे धातुका योग है-कृक्ति - कृत +क = कृतक-काणुक - काणुका। इन्द्रके विशेषणके रूपमें काणुकाके निर्वचन १- इन्द्रः सोमस्य कान्त इतिवा १ अर्थात् इन्द्र सोमका कान्त है या प्रिय है। इसके अनुसार ३०६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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