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________________ अनुसार इसमें अग्र + गल् धातु का योग है। (३) अग्रकारिण्यो भवन्तीतिवा अर्थात् सर्वप्रथम यह कार्य करने वाली होती है या अग्रकारिणी होती है। इसके अनुसार इसमें अग्र + कृ धातु का योग है। (४) अग्र सारिण्यो भवन्तीतिवा अर्थात् यह अग्रसारिणी होती है, प्रत्येक कर्ममें आगे आने वाली होती है। इसके अनुसार इसमें अग्र + सृ धातु का योग है। (५) अंकना भवन्तीति वा अर्थात् यह अंकन करने वाली होती है। इसके अनुसार इस शब्दमें अंक लक्षणे धातुका योग है। (६) अंचना भवन्तीतिवा अर्थात् यह पूजन करने वाली होती है। इसके अनुसार इस शब्दमें अंच् गति पूजनयोः धातुका योग है। (७) अपि वाभ्यंचनादेवस्यु : ३५ अर्थात् प्रत्येक कार्यों के प्रति अभिमुखहोकर जाती है। इस निर्वचनके अनुसार इसमें अंच् गतौ धातुका योग है। यास्क अंगुलि शब्दके निर्वचनमें अनेक मार्ग अपनाते हैं। इसका कारण विभिन्न अर्थों का बोध कराना है। यास्कके निर्वचनसे हाथ द्वारा सम्पादित विविध कार्य स्पष्ट हो जाते हैं द्वितीय निर्वचनके अनुसार हाथ द्वारा सम्पादित अर्ध्य या तर्पण द्योतित होता है जिसमें अंगुलियोंके अग्रभागसे जल गिराया जाता है। यह सांस्कृतिक आधार रखता है। पंचम निर्वचनके अनुसार इससे लेखन कार्यका संकेत प्राप्त होता है। षष्ठ निर्वचनके अनुसार अंगुलिसे पूजन कार्यका द्योतन होता है। शेष निर्वचन विविध कार्य सम्पादन अर्थको अभिव्यक्त करते हैं। अर्थात्मक दृष्टिकोणसे सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। ये निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं है। पूर्ण रूपमें धातुओंका संकेत भी इनमें नहीं प्राप्त होता है। इसे अंगयो : पाणयोः लीयन्ते तिष्ठन्तीति अंगुलयः बनाया जा सकता है या अगि लक्षणे धातु से माना जा सकता है। व्याकरण के अनुसार अगि गतौ धातुसे उलि : ४° प्रत्यय कर अंगुलिः शब्द बनाया -जा सकता है। (२०) अवनय :- अवनि अंगुलि का वाचक है। अवनिका ही बहुबचन रूप अवनयः होता है। निरुक्तके अनुसार अवन्ति कर्माणि ३५ अर्थात् यह कर्मोंकी रक्षा करती है। इसके अनुसार अवनि शब्द में अं रक्षणे धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें अवनिः का अर्थ पृथ्वी होता है। पृथ्वी वाचक अवनिमें भी अव् धातुका ही योग माना जाएगा। कालान्तर में अवनि शब्दमें अर्थ परिवर्तन हो गया है। यह लौकिक संस्कृतके पृथ्वी वाचक अवनि शब्द से स्पष्ट हो जाता है। व्याकरणके अनुसार अव् + अनि प्रत्यय (अव प्रीणने कर्तरि अनि) कर बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार यास्कका निर्वचन संगत माना जाएगा। २०६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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