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________________ कहलाते थे । ३४ निरुक्तके अनुसार ( १ ) निषादः निशदनो भवति ३५ अर्थात् वह प्राणियोंको मारने वाला होता है। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्द में नि + षद् का योग है। (२) निषन्नमस्मिष्पापकमितिनैरुक्ता: ३५ निरुक्त सम्प्रदायके अनुसार इसमें पापकर्म बैठा रहता है इसलिए निषाद कहलाया। इसके आधार पर निषाद शब्दमें नि : सद् विशरणगत्यवसादनेषु धातुका योग है। इन निर्वचनों से निषाद वर्णके तत्कालीन निन्द्य कर्मका पता चलता है। ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे दोनों निर्वचन उपयुक्त हैं यास्कके समयमें अर्थात्मक औचित्य भी संभावित है। फलत: इसे भाषां विज्ञानके अनुसार उपयुक्त माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार नि + षद्लृ निशरणादौ धातुसे घञ् ३६ प्रत्यय कर निषाद शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें निषाद शब्द संगीत शास्त्रका स्वर विशेष, धीवर जातिवेशेष, चाण्डाल आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। (१७) पंच :- यह पांच संख्याका वाचक है। निरुक्तके अनुसार पंच पृक्ता संख्या अर्थात् पंच पृक्त (मिली हुई) संख्या है। पंच में एक से लेकर पांच तक की संख्यायें मिली होती हैं। इसके अनुसार पंच शब्दमें पृची सम्पर्के धातुका योग है। स्त्री पुंनपुंसकेषु अविशिष्टा अर्थात् यह स्त्रीलिंग पुलिंग एवं नपुंसक में एक समान रहता है। लिंग के अनुसार इसका रूप परिवर्तन नहीं होता । अर्थात्मक दृष्टिकोणसे यह निर्वचन उपयुक्त है। पृच् से पंच में स्वरगत औदासिन्य है। किंचित् ध्वनि परिवर्तनके साथ भारोपीय भाषाओंमें इसे देखा जा सकता है-सं: पंचन्- अबे पंचन, ग्रीक Penta अंग्रे. Five. (१८) बाहु :- इसका अर्थ होता है-भुजा । निरुक्तके अनुसार-प्रवाधत आभ्यां कर्माणि३५ अर्थात् इनसे कार्य सम्पन्न होते हैं। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दमें वाधृ विलोडने धातुका योग है। धातु स्थित ध का ह में परिवर्तन हो गया है। यह परिवर्तन धातुज नियमानुकूल है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से यह निर्वचन उपयुक्त है। महाप्राण ध्वनियोंका ह में परिर्वतन भारतीय अन्य भाषाओं में भी प्राप्त है । ३७ व्याकरण के अनुसार वाधृ + उ: ३८ प्रत्यय कर बाहु: शब्द बनाया जा सकता है। या वाह प्रयत्ने धातु से अच्३९ प्रत्यय कर इसे बनाया जा सकता है। (१९) अंगुलय :- यह अंगुलि के बहुबचनका रूप है। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होतें हैं- (१) अग्रगामिन्यो भवन्तीतिवा अर्थात् किसी भी कार्य सम्पादनमें यह आगे जाने वाली होती है। इसके अनुसार इसमें अग्र + गम् धातु का योग है। (२) अग्रगालिन्यो भवन्तीति वा अर्थात् यह अग्रभागमें पानी गिराने वाली होती है। इसके २०५: व्युत्पति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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