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________________ इस शब्दमें रिच वियोजने धातुका योग है क्योंकि मरने पर धन यहीं रह जाता है। मृत्युके बाद ब्यक्तिसे धनका वियोग हो जाता है। रिच् + नस्-रिच् +णस् =रेक्णः। यह निर्दकन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त हैं। लौकिक संस्कृतम इसका प्रयोग प्राय: नहीं प्राप्त होता। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संमत माना जाएगा। (५) :-यह अपत्यका वाचक है। निरुक्तके अनुसास्शेष इत्यपत्य नाम शिष्यते प्रयत: इसके अनुसार शेष शब्द शिष विशेषणे धातु का योग है क्योंकि मृत्यु के बाद यही शेष रहता है। शिक्शेषः। यह ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से मुक्त है। लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग प्राप्त है। मावा विज्ञानके अनुसार इसे संमत माना जाएगा। - (१) ओक :- इसका अर्थ होता है निवास स्थाना यास्क इसका निर्वचन न कर मात्र इसके अर्थ का प्रदर्शन करते हैं ओक इति निवास नामोच्यते व्याकरणके अनुसकर इसे (क्च) उच् + असुन कुत्व से बनाया जा सकता है। (७) दुहिन :- इसका अर्थ होता है लड़की। निरुक्ती इसके लिए कई निर्वचन प्राप्त होते हैं- (१) दुहिता दुर्हिता' इसके अनुसार दुहिता शब्दमै दुःएवं घा धातुका कोम है क्योंकि धारण करनेमें यह अहितकारक होती है दु: +धा हितामा दुर्हिता दुहिता। (२) दूरे हिता अर्थात् पिता से दूर रहनेमें ही वह हितकारक होती है। इसके अनुसार इसमें दूर धा धातु का योग है। दु दूर का वाचक है। (३) दोघे अर्थात् वह अपने पितृ कुलसे धन सदा दूहती रहती है। इसके अनुसार इस शब्दर्भ दुह प्रपूरणे धातुका योग है। इसके अनुसार यह भी कहा जा सकता है कि प्रारंभिक कालमै पशुओं के दोहन कर्म में लड़कियां नियुक्त हुआ करती थी। यास्क के उपर्युक्त निर्वचनोंकी अर्थात्मक पुष्टि ऐतरेय ब्राह्मणके प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य सायण ने भी की है। यह निर्वचन धातुज सिद्धान्त पर आधास्ति हैं। माया विज्ञानके अनुसार मास्कका अन्तिम निर्वचन सर्वथा संमत है। दुहितृ शब्दध्वन्यात्मक अन्तर के साथ मारोपीय परिबरकी अन्य भाषाओंमें भी प्राप्त होता है- संस्कृत-दुहित अवेस्ता Dadee (दुधकर) पा.दुख्खर,ग्रीक-Thugather (घुमत) जर्मन्-Tother (टाक्टर) अंग्रेजी-D her (डाउटर) मोथिक -Dancer डाऽन्टरलिथुमानियन D"- (दक्कर) स्लैबोनिक Dai (दस्ती) व्याकरणके अनुसार इसे दुह प्रपूरणे+ मृच प्रत्यय कर दुहित-दुहिता शब्द बनाया जा सकता है। २०० : ब्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यारक
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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