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________________ 462 भद्रबाहुसंहिता उपवास इत्यादि के द्वारा शरीर और कपायों को कृश कर आत्मशोधन में लगना सल्लेखना है, इस क्रिया को करने वाला व्यक्ति ज्ञान, ध्यान में संलग्न रहता है ।।7। शास्त्राभ्यासं सदा कृत्वा सङ ग्रामे यस्तु मुह्यति । द्विपोस्तस्य कृतस्स्नानो मुनेर्व्यर्थं तथा व्रतम् ॥४॥ शास्त्र-स्वाध्याय करने पर भी जिसकी बुद्धि इन्द्रियों में आसक्त रहती है उस मुनि के व्रत हाथी के स्नान की तरह व्यर्थ हैं अर्थात् जिस प्रकार हाथी स्नान करने के अनन्तर पुनः धूलि अपने शरीर पर विबे र लेता है, उसी प्रकार जो मुनि या आत्मसाधक शात्राभ्यास करने पर भी सल्लेखना नहीं धारण करता है और इन्द्रियों में आसक्त रहता है उसके व्रत व्यर्थ हैं: अत: जीवन का वास्तविक उद्देश्य मल्लेखना धारण करना है ।।8। विरतः कोऽपि संसारी संसारभयभीरुकः। विन्द्यादिमान्यरिष्टानि भाव्यभावान्यनुक्रमात् ॥9॥ जो कोई संसार से विरत तथा संमार भय से युक्त व्यक्ति आत्म-कल्याण करना चाहता है उसके लिए शरीर में उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के अरिष्टों का मैं निरूपण करता हूँ ।।9।। पूर्वाचायैस्तथा प्रोक्तं दुर्गाद्यैलादिभिः यथा। गृहीत्वा तदभिप्रायं तथारिष्टं वदाम्यहम् ॥10॥ दुर्गाचार्य, ऐलाचार्य आदि पूर्वाचार्यों के कथन अभिप्राय को लेकर ही में अरिष्टों का कथन करता हूँ ।।10॥ पिण्डस्थञ्च पदस्थञ्च रूपस्थञ्च त्रिभेदतः । आसन्नमरणे प्राप्ते जायतेरिष्टसन्तति: ॥11॥ जिस व्यक्ति का शीघ्र ही मरण होने वाला है उसके शरीर में पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये तीन प्रकार के अरिष्ट उत्पन्न होते हैं ॥11॥ विकृतिर्दश्यते कायेऽरिष्टं पिण्डस्थमुच्यते। अनेकधा तत्पिण्डस्थं ज्ञातव्यं शास्त्रवेदिभि: ॥12॥ शरीर में अप्राकृतिक रूप से अनेक प्रकार की विकृति होने को शास्त्र के जानने वालों ने पिण्डस्थ अरिष्ट कहा है ।। 1 211 सुकुमारं करयुगलं कृष्णं कठिनमवेद्यदायस्य । न स्फुटन्ति वाङ गुलयस्तस्यारिष्टं विजानीहिः॥13॥
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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