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________________ प्रस्तावना 49 सिद्धि होती है। __ पृच्छक से किसी फूल का नाम पूछकर उसकी स्वर संख्या को व्यंजन संख्या से गुणा कर दें; गुणनफल में पृच्छक के नाम के अक्षरों की संख्या जोड़ कर योगफल में 9 का भाग दें। एक शेष में शीघ्र कार्यसिद्धि; 21510 में विलम्ब से कार्यसिद्धि और 41618 शेष में कार्य नाश तथा अवशिष्ट शेष में कार्य मन्द गति से होता है । पृच्छक के नाम के अक्षरों को दो से गुणा कर गुणनफल में 7 जोड़ दे । उस योग में 3 का भाग देने पर सम शेष में कार्य नाश और विषम शेष में कार्यसिद्धि फल कहना चाहिए। पृच्छक के तिथि, वार, नक्षत्र संख्या में गभिणी के नाम अक्षरों को जोड़कर सात का भाग देने में एकाधिक शेष में रविवार आदि होते हैं। रवि, भौम और गुरुवार में पुत्र तथा सोम, बुध और शुक्रवार में कन्या उत्पन्न होती है। शनिवार उपद्रव कारक है। इस प्रकार अष्टांग निमित्त का विचार हमारे देश में प्राचीन काल से होता आ रहा है। इस निमित्त ज्ञान द्वारा वर्षण-अवर्षण, सुभिक्ष-दुभिक्ष, सुख-दुःख, लाभ, अलाभ, जय, पराजय आदि बातों का पहले से ही पता लगाकर व्यक्ति अपने लौकिक और पारलौकिक जीवन में सफलता प्राप्त कर लेता है। अष्टांग निमित्त और ग्रीस तथा रोम के सिद्धान्त जैनाचार्यों ने अष्टांग निमित्त का विकास स्वतन्त्र रूप से किया है। इनकी विचारधारा पर ग्रीस या रोम का प्रभाव नहीं है । ज्योतिषक रण्डक (ई० पू० 300-350) में लग्न का जो निरूपण किया गया है, उससे इस बात पर प्रकाश पड़ताहै कि जैनाचार्यों के ग्रीक सम्पर्क के पहले ही अष्टांग निमित्त का प्रतिपादन हुआ था। बताया गया है लग्गं च दक्षिणायविसुवेसु वि अस्स उत्तरं अयणे । लग्गं साई विसुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे । इस पद्य में अस्स यानी अश्विनी और साई अर्थात् स्वाति ये विषुव के लग्न बताये गये हैं। ज्योतिषकरण्डक में विशेष अवस्था के नक्षत्रों को भी लग्न कहा है। यवनों के आगमन के पूर्व भारत में यही जैन लग्न प्रणाली प्रचलित थी। प्राचीन भारत में विशिष्ट अवस्था की राशि के समान विशिष्ट अवस्था के नक्षत्रों को भी लग्न कहा जाता था । ज्योतिषक रण्डक में व्यतीपात आनयन की जिस प्रक्रिया का वर्णन है वह इस बात की साक्षी है कि ग्रीक सम्पर्क से पूर्व ज्योतिष का प्रचार राशि ग्रह, लग्न आदि के रूप में भारत में वर्तमान था। कहा गया है
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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