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________________ 292 भद्रबाहुसंहिता 82, 84 और 86 दिनों में समान भाग देने पर शुक्र का समान प्रवास आ जाता है ॥181॥ द्वादशाहं च विशाहं दशपंच च भार्गवः । नक्षत्रे तिष्ठते त्वेवं समचारेण पूर्वत: ॥182॥ बारह दिन, बीस दिन और पन्द्रह दिन शुक्र एक नक्षत्र पर पूर्व दिशा से विचरण करने पर निवास करता है ।।182।। पाशुं वातं रजो धूमं शीतोष्णं वा प्रवर्षणम्। विधुदुल्काश्च कुरुते भार्गवोऽस्तमनोदये ॥183॥ शुक्र का अस्त होना धूलि, वर्षा, धूम, गर्मी और ठण्डक का पड़ना, विद्यु त्पात और उल्कापात आदि फलों को करता है । 183॥ सितकुसुमनिभस्तु भार्गव : प्रचलति वीथीषु सर्वशो यदा वै। घटगृहजलपोतस्थितोऽभूद् बहुजलकृच्च तत: सुखदश्चारु ॥18॥ श्वेत पुष्पों के समान वर्ण वाला शुक्र वीथियों में गमन करता है, तो निश्चय से सभी ओर खूब जलवृष्टि होती है तथा वर्ष सुख देने वाला और आनन्ददायी व्यतीत होता है ।।184॥ अत ऊवं प्रवक्ष्यामि वकं चारं निबोधत । भार्गवस्य समासेन तथ्यं निर्ग्रन्थभाषितम् ॥185॥ इसके पश्चात् शुक्र के वक्रचार का निरूपण संक्षेप में किया जाता है, जैसा कि निर्ग्रन्थ मुनियों ने वर्णन किया है ।। 185॥ पूर्वेण विशऋक्षाणि पश्चिमेकोनविंशतिः। चरेत् प्रकृतिचारेण समं सीमानिरीक्ष्योः ॥186॥ सीमा निरीक्षण में स्वाभाविक गति से शुक्र पूर्व में बीस नक्षत्र और पश्चिम में उन्नीस नक्षत्र गमन करता है ।।1861 एकविशं यदा गत्वा याति विंशतिमं पुनः । भार्गवोऽस्तमने काले तद्वकं विकृतं भवेत् ॥1870 अस्त काल में इक्कीसवें नक्षत्र तक पहुँचकर शुक्र पुनः बीसवें नक्षत्र पर आता है, इसी लोटने की गति को उसका विकृत वक्र कहा जाता है ।।187।। 1. सर्वदेशशोकदः, मु० । 2. पश्चादे मु० । 3. हीनातिरिक्तयो: मु० ।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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