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________________ तो कर्मों की उदीरणा प्राणी के द्वारा किए गए प्रयत्नों से अपनाए गए निमित्त से सहज रूप में होती रहती है, परन्तु अन्तरतम में अज्ञातअगाध गहराई में छिपे व स्थित कर्मों की उदीरणा के लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता होती है, जिसे तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा करना कहा जाता है। ___ वर्तमान मनोविज्ञान भी उदीरणा के उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करता है। मनोविज्ञान में इस प्रक्रिया से अवचेतन मन में स्थित मनोग्रन्थियों का रेचन या वमन कराया जाता है। इसे मनोविश्लेषण पद्धति कहा जाता है। इस पद्धति से अज्ञात मन में छिपी हुई ग्रन्थियाँ, कुण्ठाएँ, वासनाएँ, कामनाएँ ज्ञात मन में प्रकट होती हैं, उदित होती हैं और उनका फल समता से भोग लिया जाता है तो वे नष्ट हो जाती हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मानव की अधिकतर शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का कारण ये मन में छिपी हुई अज्ञात ग्रन्थियाँ ही हैं, जिनका संचय हमारे जीवन में हुआ है। जब ये ग्रन्थियाँ बाहर प्रकट होकर नष्ट हो जाती हैं तो इनसे संबंधित शारीरिक-मानसिक बीमारियाँ भी नष्ट हो जाती हैं। मानसिक चिकित्सा में इस पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ___अपने द्वारा पूर्व में हुए पापों या दोषों को स्मृति पटल पर लाकर गुरु के समक्ष प्रकट करना, उनकी आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना, उदीरणा या मनोविश्लेषण पद्धति का ही रूप है। इससे साधारण दोष दुष्कृत मिथ्या हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, फल देने की शक्ति खो देते हैं। यदि दोष प्रगाढ़ हों, भारी हों तो उनके नाश के लिए प्रायश्चित्त लिया जाता है। प्रतिक्रमण कर्मों की उदीरणा में बड़ा सहायक है। हम प्रतिक्रमण के उपयोग से अपने दुष्कर्मों की उदीरणा करते रहें तो कर्मों का संचय घटता जायेगा जिससे आरोग्य में वृद्धि होगी। जो शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य तथा समता, शान्ति एवं प्रसन्नता के रूप में प्रकट होगा। नियम- 1. बिना अपवर्तन के उदीरणा नहीं होती है। 2. उदीरणा से कर्म उदय में आकर फल देते हैं। 3. उदीरणा से उदय में आकर जितने कर्म कटते हैं (निर्जरित होते है), उदय में कषाय भाव की अधिकता होने से उनसे अनेक गुणे कर्म अधिक भी बंध सकते हैं। प्राक्कथन XXXVII
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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