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________________ तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: २९ पाणिनि केवल 'व्' का सम्प्रसारण करते हैं, अत: उन्हें “सम्प्रसारणाच्च' (अ० ६। १।१०८) से परवर्ती स्वर का पूर्वरूप आदेश भी करना पड़ता है, परन्तु कातन्त्रकार ने परवर्ती स्वर के सहित अन्तस्थासंज्ञक वर्गों का सम्प्रसारणविधान किया है। अत: उन्हें पूर्वरूप आदेश करने की आवश्यकता नहीं होती है। [रूपसिद्धि] १. जुहाव। हृञ् + परोक्षा अट्। 'ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च' (१ । ६१३) धातु से परोक्षभूत अर्थ की विवक्षा में परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद प्रथमपुरुष-एकवचन 'अट्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारण, 'हु' को द्विर्वचन, 'हो जः” (३।३१२) से हकार को जकार, धातुगत उकार को वृद्धि-औकार तथा औकार को 'आव्' आदेश। २. जुहूषति। हृञ् + सन् + ति। ह्वातुमिच्छति। 'ह्वेञ्' धातु से इच्छार्थ में सन् प्रत्यय, “अनिडेकस्वरा०” (३१७१३) से अनिट्, प्रकृत सूत्र से संप्रसारण, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, हकार को जकार, दीर्घ, षत्व, 'जुहूष' की "ते धातवः'' (३। २। १६) से धातुसंज्ञा तथा वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय। ३. जोहूयते। हृञ् + य + ते। पुन: पुनर्रयति। 'ह्वेञ्' धातु से चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, धातुगत एकार को आकार, प्रकृत सूत्र से संप्रसारण, द्वित्वादि, हकार को जकार, गुणादेश, दीर्घ 'जोहूय' की धातुसंज्ञा तथा वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुषएकवचन 'ते' प्रत्यय।। ५५४। ५५५. द्युतिस्वाप्योरभ्यासस्य [३। ४।१५] [सूत्रार्थ] द्युत् तथा इनन्त स्वप् धातुओं के अभ्यास में वर्तमान परवर्ती स्वरसहित अन्तस्थासंज्ञक वर्गों का सम्प्रसारण होता है।। ५५५। [दु० वृ०] धुतिस्वाप्योरभ्यासस्यान्तस्थायाः सपरस्वराया: संप्रसारणं भवति। दिद्युते, दिद्युताते, दिद्योतिषते, अदिद्युतत्। सुष्वापयिषति। स्वापेरिनन्तस्य ग्रहणान्न घजादौ, तेन सिष्वापयिषति।। ५५५। [दु० टी०] द्युति० । ननु स्वापेरिति किमर्थो दीर्घनिर्देशः, स्वपे: शुद्धस्याभ्यासस्य परोक्षादिषु संप्रसारणमस्तीति प्रत्ययान्तरयुक्तस्य ग्रहणं चेत् कृदन्तेऽपि प्रसङ्गः - सिष्वापकयिषतीति। तस्मात् स्वापेरिति निर्देशादेवेनन्तस्य ग्रहणम् , तर्हि स्वापेर्घजि स्वापं करोतीति इनि स्वापयति। कारिते कृते निर्देशसारूप्यमस्तीति 'सिष्वापयिषति' इत्यत्रापि प्राप्नोति? सत्यम्, अनामधातोरेवात्र ग्रहणं द्युतिना साहचर्यात्। मुख्यो वा संश्लेषो गृह्यते न गौणः। गौणत्वं पुनर्घजोऽकारलोपेऽसंश्लेषादित्याह – स्वापेरित्यादि।। ५५५ ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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