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________________ तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: इति न्यायात्। नन्वत्रागुणत्वाभावादेव संप्रसारणं न भविष्यति चेत्, 'निमित्तं च निमित्तेन' इति न्यायात् तन्निवृत्ति:? सत्यम्। विशेषणत्वेनानुवृत्तौ न दूषणम्। यथा तेभ्योग्रहणं स्वरयवरपरनिवृत्त्यर्थमिति, तद्वदनापीति चेत् "न णकारानुबन्धः” (३। ५। ७) इत्यत्र णकारानुबन्धानां सामान्येन ग्रहणं भविष्यति चेत्, न। तत्र चेक्रीयिताख्यातेन सह साहचर्य भविष्यति, ततश्च वाच्यमित्यादौ न स्यादेव सम्प्रसारणमिति चेत्, यन्मते तद्ग्रहणम् अभिन्नबुद्ध्यर्थमिति तन्मते तत्र साहचर्यं कुत इति चेत् क्यप: ककारानुबन्ध एव ज्ञापयति-कृद्यकाराणां क्यपो य एवागुणो नान्यस्य ओदौद्भ्यां कृद् य इत्यनेन ज्ञापयिष्यते।। ५४२। [समीक्षा] 'सुप्यते, उच्यते, इज्यते' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ यकारादि अन्तस्थासंज्ञक वर्गों के सम्प्रसारण की आवश्यकता होती। इसकी पूर्ति पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ही आचार्यों ने की है। पाणिनि का सूत्र है - "वचिस्वपियजादीनां किति च" (अ०६। १।१५)। पाणिनीय व्याकरण में यक् प्रत्यय कित् है, “असंयोगाल्लिट् कित्' (अ०१। २। ५) सूत्र द्वारा लिट् लकार को तथा “किदाशिषि" (अ० ३। ४।१०४) सूत्र द्वारा आशीर्लिङ् लकार को कित् घोषित किया गया है, अत: पाणिनीय निर्देश में कित् निमित्त का उल्लेख है। इसके विपरीत कातन्त्रकार ने यक् के लिए यण इस णकारानुबन्ध वाले प्रत्यय का प्रयोग किया है तथा परोक्षा (लिट्) एवं आशीविभक्ति (आशीर्लिङ्) को कित् नहीं कहा है, इसलिए उन्हें ‘यण–परोक्षा-आशी:' इन् तीनों का सूत्र में पाठ करना पड़ा है। यह भेद शैलीगत है, अत: उभयत्र साम्य ही है। [विशेष वचन] १. द्वन्द्वाद्धि यत् परं श्रूयते तल्लभते प्रत्येकमभिसंबन्धम् (द० टी०; वि०प०)। २. यजादिवचिस्वपामिति न कृतम्, पाठगौरवभयात् (दु० टी०)। ३. यजादयो हि बहवो व्यक्त्या निर्दिश्यन्ते इति यथासङ्ख्यमिह न भवति, प्रकृतीनां बहुत्वात् (वि० प०)। ४. एकानुबन्धग्रहणे न द्वयनुबन्धकस्य ग्रहणम् (बि० टी०)। [रूपसिद्धि] १. सुप्यते। स्वप् + यण् + ते। 'भि ष्वप शये' (२। ३२) धातु से भाव अर्थ में वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष-एकवचन ते-प्रत्यय, “धात्वादे: ष: सः' (३। ८ । २४) से षकार को सकारादेश, “सार्वधातुके यण'' (३। २। ३१) से यण् प्रत्यय, “न णकारानुबन्धचेक्रीयितयोः'' (३। ५। ७) से अगुण तथा प्रकृत सूत्र द्वारा वकार को सम्प्रसारण उकार। २. सुषुपतुः। स्वप् + परीक्षा-अतुस्। 'त्रि प्वप शये' (२ । ३२) धातु से परीक्षासंज्ञक प्रथमपुरुष-द्विवचन 'अनुस्' प्रत्यय, “परोक्षायां च'' (३। ५ । २०) से अगुण,
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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