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________________ तृतीये आख्याताध्याये सप्तमः इडागमादिपादः ४१७ में टीकाकार ने कहा है कि वह तो "स्वरतिसूति ०" (४।६।८३) सूत्र द्वारा ही सिद्ध है, अतः प्रकृत सूत्र में 'स्वृ' धातु नहीं पढ़ी गई है। [विशेष वचन ] १. यौतेरुवर्णान्तत्वात् प्रतिषेधे सत्यप्राप्ते विभाषा (दु० टी०)। २. ऋधिज्ञप्योरीरितौ वक्तव्याविति वचनादीर् अभ्यासलोपश्च (वि० प० ) । ३. धीप्सतीति। इत्यत्र चकारादनामिनोऽपि क्वचिदिति वचनादनुषङ्गलोपः ( वि० प० ) । ४. ‘सिद्धे सत्यारम्भः' इति न्यायात् ( बि० टी० )| ५. अथवा उत्तरार्थं क्रियमाणं वाग्रहणम्, इह त्वेतदर्थम् (बि० टी०) । [रूपसिद्धि] १. दिदेविषति, दुद्यूषति । दिव् + इट् + सन् + अन् + ति। देवितुमिच्छति। 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यत्रहारद्युतिस्तुतिकान्तिगतिषु' (३।१) धातु से इच्छार्थ में “धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनैककर्तृकात् ' ( ३।२।४) से 'सन्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से इडागम, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, वकारलोप, धातु की उपधा इकार को गुण, सकार को षकार, 'दिदेविष' की धातुसंज्ञा, 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण तथा अकार का लोप । - इडभावपक्ष में ‘दिव्' धातु से 'सन्' प्रत्यय, द्विर्वचनादि, 'ति' प्रत्यय, “छ्वोः शूटौ पञ्चमे च' (४|१|५६ ) से 'व' को 'ऊ', इकार को यकार, धातुसंज्ञा, ति-प्रत्यय, अन् विकरण तथा अकार - लोप । २. अर्दिधिषति, ईर्त्सति। ऋध् + इट् + सन् + अन् + ति। 'ऋधु वृद्धौ' (३।७९; ४।२०) धातु से 'सन्' प्रत्यय, धातुगत ऋकार को गुण, प्रकृत सूत्र से इडागम, "स्वरादेर्द्वितीयस्य” (३।३।२) से 'धि' को द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, अभ्यासगत धकार को ढकार, सकार को षकार, 'अर्दिधिष' की धातुसंज्ञा, ति-प्रत्यय, अन् -विकरण तथा अकार का लोप । इडागम के अभाव में 'ऋधिज्ञप्योरीरितौ वक्तव्यौ' इस वचन से ऋ को ईर् तथा अभ्यासलोप होने पर 'ईर्त्सति' प्रयोग । ३. बिभ्रज्जिषति, बिभ्रक्षति । भ्रस्ज् + इट् + सन् + अन् + ति। 'भ्रस्ज पाके' (५/४) धातु से सन् प्रत्यय, इडागम, द्विर्वचनादि तथा सकार को जकार। इडागम के अभाव में सकार का लोप, जकार को षकार तथा षकार को ककार, भृजादेश होने पर 'बिभृक्षति' । + + ४. दिदम्भिषति, धिप्सति, धीप्सति । दन्भ् + इट् सन् अन् ति। 'दन्भु दम्भे' (४।१९) से सन्, द्विर्वचनादि । इडभावपक्ष में "दन्भेरिच्च " ( ३ | ३ | ४१ ) से इत्त्वईत्त्व तथा अभ्यासलोप। + ५. शिश्रयिषति, शिश्रीषति । श्रि 1 इट् + सन् + अन् ति। 'श्रिञ् सेवायाम्' (१/६०४) से सन्, द्विर्वचनादि । इडभावपक्ष में "स्वरान्तानां सनि" (३।८।१२) से धातुगत इकार को दीर्घ ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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