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________________ १०० कातन्त्रव्याकरणम् ६००. जुहोते: सार्वधातुके [३।४।६०] [सूत्रार्थ] अगुण स्वरादि सार्वधातुकसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते 'हु' धातुघटित उकार को वकारादेश होता है।। ६००। [दु० वृ०] जुहोतेरुकारस्य स्वरादावगुणे सार्वधातुके परे वकारो भवति। जुह्वति, जुह्वतु। अगुण इति किम् ? जुहवानि। (सार्वधातुक इति किम् ? जुहुवुः) स्वरादाविति किम् ? जुहुयात् ।। ६००। [दु० टी०] जहो० । तिबनिर्देश: सखपाठप्रतिपत्त्यर्थ एव। सार्वधातुक इति किम् ? जहवतः, जुहुवुः। “हुनुविकरणयोः सार्वधातुके'' इत्येकयोगेन सिध्यति पृथग्योग: स्पष्टार्थ:।। ६०० । [वि०प०] जुहोते: । जुह्वतीति। "लोपोऽभ्यस्तादन्तिनः" (३।५।३८) इति नलोपः। जुहवानि' इत्यत्रापि परत्वाद् गुणेनैव भवितव्यम् इत्यगुणाधिकारो मन्दधियां सुखार्थ एव।। ६०० । [समीक्षा] हु' धातु से सिद्ध होने वाले 'जुह्वति, जुह्वत्' आदि प्रथमपुरुष-बहुवचन के रूपों में उकार को वकारादेश की अपेक्षा होती है, इसकी पूर्ति दोनों ही व्याकरणों में की गई है। पाणिनि ने एतदर्थ हु' धातु तथा 'श्नु' विकरण को एक ही सूत्र में पढ़ा है, परन्तु कातन्त्रकार ने मन्दमतिवालों के सुखावबोधार्थ अथवा स्पष्टार्थ पृथक् दो सूत्र बनाए हैं। [विशेष वचन] १. तिग्निर्देशः सुखपाठप्रतिपत्त्यर्थ एव (टु० टी०)। २. पृथग्योग: स्पष्टार्थ: (दु० टी०)। ३. अगुणाधिकारो मन्दधियां सुखार्थ एव (वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. जुह्वति। हु + अन्लुक् + वर्तमाना-अन्ति। 'हु दाने' (२६७) धातु से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-बहुवचन ‘अन्ति' प्रत्यय, अन्-विकरण, उसका लुक्, “जुहोत्यादीनां सार्वधातुके' (३।३।८) से 'हु' धातु को द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, "हो जः' (३। ३। १२) से अभ्यासघटित हकार को जकार, “द्वित्वबहुत्वयोश्च परस्मै'' (३। ५ । १९) से अगुण, प्रकृत सूत्र से 'उ' को व् तथा प्रत्ययघटित नकार का लोप।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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