SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ कातन्त्रव्याकरणम् 'मास्म' शब्द के योग में 'ह्यस्तनी - अद्यतनी' विभक्तियों का प्रयोग, क्रियासमभिहार का अर्थ, पाणिनीय मत का खण्डन, आभीक्ष्ण्य अर्थ में द्विर्वचन, लौकिकी विवक्षा, शिष्यसन्देहनिरासार्थ विधिवचन, 'मा-माङ्' के प्रयोग की विचित्रता, भाष्यकार द्वारा 'मास्म' शब्द के योग में 'ह्यस्तनी - अद्यतनी' विभक्तियों के व्यवहार = प्रयोग की चिन्ता न करना तथा स्वतन्त्र 'मास्म' शब्दविषयक वररुचि का अभिमत ] ७. त्यादि १८० प्रत्ययों की 'वर्तमाना- सप्तमी - पञ्चमी - ह्यस्तनी - अद्यतनीपरोक्षा- श्वस्तनी - आशीः- भविष्यन्ती-क्रियातिपत्ति' संज्ञाएँ तथा 'वर्तमाना-सप्तमीपञ्चमी - ह्यस्तनी' की सार्वधातुक संज्ञा १०९-१६ [‘ति-तस्-अन्ति-सि-थस्-थ- मि-वस्-मस्-ते-आते-अन्ते-से-आथे-ध्वे-ए-वहे-महे' प्रत्ययों की वर्तमाना, ‘यात्-याताम्-युस्-यास्-यातम् - यात - याम् - याव-याम-ई-ईयाताम्ईरन्-ईथास्-ईयाथाम्-ईध्वम् - ईय - ईवहि- ईमहि' प्रत्ययों की सप्तमी, 'तु-ताम् - अन्तु-हितम्-त-आनि-आव-आम-ताम्-आताम्-अन्ताम् - स्व- आथाम्-ध्वम् -ऐ-आवहे - आमहे' की पञ्चमी,‘दि-ताम्-अन्-सि-तम्-त-अम्-व-म-त-आताम्-अन्त-थास्-आथाम्-ध्वम्-इ-वहिमहि' की ह्यस्तनी-अद्यतनी संज्ञाएँ, 'अट्- अतुस् - उस् - थल्- अथुस्-अ- अट्-व-म-ए-आतेइरे से- आथे - ध्वे-ए-वहे - महे' प्रत्ययों की परोक्षा संज्ञा, 'ता-तारौ - रौ-तारस्-तासि-तास्थस्तास्थ-तास्मि-तास्वस्-तास्मस् - ता- तारौ - तारस्-तासे-तासाथे-ताध्वे-ताहे-तास्वहे - तास्महे' की श्वस्तनी, ‘यात्-यास्ताम्-यासुस् - यास् - यास्तम् - यास्त-यासम्-यास्वयास्म-सीष्ट-सीयास्ताम्सीरन्-सीष्ठास्-सीयास्थाम्-सीध्वम्-सीय-सीवहि -सीमहि' की आशीः, 'स्यति -स्यतस् - स्यन्ति-स्यसि-स्यथस्-स्यथ स्यामि - स्यावस् - स्यामस्-स्यते - स्येते - स्यन्ते - स्यसे-स्येथे - स्यध्वे - स्येस्यावहे-स्यामहे' की भविष्यन्ती, 'स्यत् स्यताम् - स्यन्- स्यस्-स्यतम् - स्यत-स्यम् - स्याव-स्यामस्यत-स्येताम्-स्यन्त-स्यथास्- स्येथाम्-स्यध्वम्-स्ये- स्यावहि- स्यामहि' की क्रियातिपत्ति संज्ञा तथा 'वर्तमाना-सप्तमी- पञ्चमी - ह्यस्तनी' विभक्तियों की सार्वधातुकसंज्ञा, सामान्य का आश्रयण कष्टकर, उक्त सभी संज्ञाओं के १-१ विधिसूत्र, पाणिनीय लट् आदि लकारों की कृत्रिमता, एक ही साथ 'ह्यस्तनी - अद्यतनी' संज्ञाओं की प्रवृत्ति - शङ्का का अभावएतदर्थ ही दो संज्ञाओं के लिए दो सूत्र, विचित्रार्थ पृथक् योगकरण, पूर्वाचार्यप्रसिद्ध वर्तमाना आदि संज्ञाओं की अन्वर्थता, 'सार्वधातुक' संज्ञा की पूर्वाचार्यों में प्रसिद्धि तथा उसकी लोकसिद्ध स्वाभाविक नपुंसकलिङ्गता, आचार्य आपिशलि द्वारा स्त्रीलिङ्ग 'सार्वधातुका' शब्द का प्रयोग, काशकृत्स्नव्याकरण आदि प्राचीन ग्रन्थों में तथा जैनेन्द्रव्याकरण आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में इस संज्ञा का प्रयोग ]
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy