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________________ ९१ तृतीये आख्याताध्याये प्रथमः परस्मैपादः ने पूर्वाचार्यों के व्याकरणों का अवलोकन करने के बाद ही उनके मत का समादर करने के उद्देश्य से इस मत का संग्रह किया है । इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि प्रायः अन्य आचार्य इस मत का समर्थन नहीं करते । पाणिनि ने "शकि लिङ् च'' (अ० ३।३।१७२) कहकर लिङ् का विधान तो किया है, परन्तु लोट (पञ्चमी) का नहीं । [विशेष वचन] १. परैरशक्यस्य वस्तुनोऽध्यवसायः समर्थना, इष्टार्थस्याशंसनमाशीः (दु० वृ०)। २. इष्टार्थस्याशंसनमपि प्रार्थनमेव (दु० वृ०)। ३. अन्ये तु समर्थने पञ्चमी नेच्छन्तीत्याह – मतमस्येति, दृष्टाद्यव्याकरणत्वात् (दु० टी०)। ४. अन्ये तु समर्थनायां पञ्चमी नेच्छन्ति, शर्ववर्मणा तु दृष्टाद्यव्याकरण त्वादिष्टैवेत्याह - मतमस्येति (वि० प०)। ५. यदाह चन्द्रगोमी - प्रार्थनं याचनमिष्टाशंसनं चेति (वि० प०)। ६. परैरशक्यस्य वस्तुनः क्रियारूपस्य कर्तव्यत्वेनाध्यवसायः समर्थनेत्यर्थः (क० च०)। [रूपसिद्धि] १. पर्वतमप्युत्पाटयानि | उत् + पट + इन् + आनि | २. समुद्रमपि शोषयाणि । शुष् + इन् + आनि । प्रकृत सूत्र से समर्थना अर्थ की विवक्षा में पञ्चमीसंज्ञक आनि विभक्ति का प्रयोग | ३ - ४. जीवतु भवान् । जीव् + अन् + तु । नन्दतु भवान् । नन्द् + अन् + तु | प्रकृत सूत्र से आशी: अर्थ में पञ्चमीसंज्ञक तु-विभक्ति का प्रयोग तथा “अन् विकरणः कर्तरि" (३।२।३२) से अन् विकरण का प्रयोग ।।४३५। ४३६. विध्यादिषु सप्तमी च [३।१।२०] [ सूत्रार्थ ] विध्यादि अर्थों में विद्यमान धातु से सप्तमी तथा पञ्चमी विभक्तियों का विधान होता है || ४३६।
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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