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________________ ४० कातन्त्रव्याकरणम् वारण चान्द्रव्याकरण- "अवधेः पञ्चमी' (२।१।८१)। जैनेन्द्रव्याकरण-"ध्यपाये ध्रुवमपादानम्' (१।२।११०)। हैमव्याकरण- “अपायेऽवधिरपादानम्" (२।२।२९)। मुग्धबोधव्याकरण- “यतोऽपायभीजुगुप्सापराजयप्रमादादानभूत्राणविरामान्तर्द्धि वारणं जंपी" (सू० २९९)। अग्निपुराण- अपादानं यतोऽपैति आदत्ते च भयं तथा । अपादाने पञ्चमी स्यात् । अपादानं द्विधा प्रोक्तम् । (३५०।२७; ३५३।११)। नारदपुराण- पञ्चमी स्याद् ङसिभ्यांभ्यो ह्यपादाने च कारके । यतोऽपैति समादत्ते अपदत्ते च यं यतः ।। . . . . . . . ... . रक्षार्थानां प्रयोगतः। ईप्सितं चानीप्सितं यत् तदपादानकं स्मृतम् ।। (५२।७, ९)। शब्दशक्तिप्रकाशिका- क्रियाधर्मिणि यः स्वार्थः पञ्चम्या विग्रहस्थया। अनुभाव्यः कारकं तदपादानत्वसंज्ञकम् ।। (का० ६९)। 'अपादान - सम्प्रदान' शब्दों में 'कृ' धातु का प्रयोग न होने के कारण तथा दूसरे से अपाय होने - दूसरे को दान किए जाने के कारण भी इनके कारक होने में सन्देह किया जाता है, परन्तु महाभाष्यकारादि ने विस्तार से विचार करते हुए इनका कारकत्व होना अक्षुण्ण रूप में स्वीकार किया गया है (द्र०, म० भा० तथा म० भा० प्र० १।४।२३)। [रूपसिद्धि] १-२= वृक्षात् पर्णं पतति । पावतोऽश्वात् पतति । वृक्ष तथा अश्व से विश्लेष होने के कारण प्रकृत सूत्र से उनकी अपादानसंज्ञा तथा "शेषाः कर्मकरण" (२।४।१९) से पञ्चमी - विधान । पञ्चमी - एकवचन 'सि' के स्थान में "सिरात्" (२।१।२१) से आत् आदेश उपपन्न होता है। ३-४. व्याघ्राद् बिभेति । चौराद् उद्विजते । भयहेतु होने के कारण व्याघ्र तथा चौर शब्दों की प्रकृत सूत्र से अपादानसंज्ञा तथा पञ्चमी विभक्ति का विधान |
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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