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________________ नामचतुष्टयाध्याये षष्ठस्तद्धितपादः किया गया है | पाणिनि का सूत्र है- “टे:" (अ० ६/४/१४३)। अतः उभयत्र समानता ही है। [रूपसिद्धि] १. चत्वारिंशः । चत्वारिंशतः पूरणः । चत्वारिंशत् +ड +सि । “संख्यायाः पूरणे डमौ' (२/६/१६) से 'ड' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से ‘अत्' भाग का लोप, लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा “रेफसोर्विसर्जनीयः" (२/३/६३) से स् को विसगदिश । २. पञ्चाशः । पञ्चाशतः पूरणः । पञ्चाशत् + ड+सि । पूर्ववत् प्रक्रिया । ३-४. सरसिजम् । सरसि जातम् । सरसि +जन् +ड+सि । जलजम् । जले जातम् । जल +जन् +ड +सि । “सप्तमीपञ्चम्यन्ते जनेर्ड:" (४/३/९१) से ड-प्रत्यय, “योऽनुबन्धोऽप्रयोगी" (३/८/३१) से ड् अनुबन्ध का अप्रयोग, प्रकृत सूत्र से 'अन्' भाग का लोप, लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा “अकारादसंबुद्धौ मुश्च" (२/२/७) से सिलोप तथा मु-आगम ।।४०८। ४०९. तेर्विंशतेरपि [२/६/४३] [सूत्रार्थ] डकारानुबन्ध वाले प्रत्यय के पर में रहने पर 'विंशति' शब्दगत 'ति' का लोप होता है ।।४०९। [दु० वृ०] डानुबन्धे प्रत्यये परे विंशतेस्तेरपि लोपो भवति । विंशतेः पूरणो विंशः ।। ४०९। [दु० टी०] तेः। पूर्वेण डानुबन्धेऽन्त्यस्वरादिलोपे सिद्धे तलोपार्थं वचनमिदम् । अपिः उक्तसमुच्चयमात्रे ।। ४०९। [समीक्षा] 'विंशतेः पूरणः' इस अर्थ में 'विंशः' शब्द के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'ति' का लोप किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “ति विंशतेर्डिति" (अ०६/ ४/१४२)। इस प्रकार उभयत्र साम्य है।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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