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________________ ३१८ कातन्वयाकरणम् ब्राह्मणसदृश इत्यन्वयबोधात् सामानाधिकरण्यं विद्यत एवेति । एवं प्रसज्यपक्षेऽप्यूह्यमिति संक्षेपः। [एवं प्रसज्यपक्षेऽत्यन्ताभाववाचिना नत्रापि ब्राह्मणशब्दस्यार्थस्यात्यन्ताभाववानित्यस्योक्तत्वेन नजो लक्षणया विशेषस्य क्षत्रियस्य वाचकत्वादुपचरितक्षत्रियार्थाभिधायिना ब्राह्मणशब्देन सह सामानाधिकरण्यमविरुद्धम् इति न दोषः । ।।३४२ । [समीक्षा] 'नीलं च तद् उत्पलं च' इस लौकिक विग्रह में वर्तमान 'नीलम्' तथा 'उत्पलम्' पदों का अधिकरण एक ही है, अतः इन पदों में होने वाले समास की कर्मधारयसंज्ञा दोनों ही व्याकरणों में की गई है | पाणिनि का सूत्र है - "तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः" (अ० १।२।४२) । यह कहीं पर नित्यरूप में प्रवृत्त होता है, तो कहीं उसकी प्रवृत्ति होती ही नहीं है । कहीं उपमानभूत विशेषण पूर्वपद होता है तो कहीं पर उत्तरपद आदि । कुछ आचार्य कर्मधारय-घटित 'कर्म' शब्द को धर्मार्थपरक मानते हैं । पूर्वाचार्यों द्वारा भी इस संज्ञा का प्रयोग किया गया है | जैसे - बृहदेवता-द्विगुर्द्वन्द्वोऽव्ययीभावः कर्मधारय एव च (२।१०५)। नाट्यशास्त्र - तत्पुरुषादिकसं निर्दिष्टः षड्डिधः सोऽपि (१४।३२)। अर्वाचीन व्याकरण आदि में प्रयोग - जैनेन्द्रव्याकरण- पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलं यश्चैकाश्रये (१।३।४४) । शाकटायनव्याकरण- विशेषणं व्यभिचार्येकार्थे कर्मधारयश्च । (२।१।५८)। हैमशब्दानुशासन-विशेषणं विशेष्येणैकार्थे कर्मधारयश्च । (३।१।९६)। मुग्धबोधव्याकरण- भिन्नान्येकार्थव्यापि संख्याव्ययादीनां च-ह-य-ष-ग-वाः (सू० ३१८)। शब्दशक्तिप्रकाशिका - क्रमिकं यन्नामयुगमेकार्थेऽन्यार्थबोधकम् । तादास्येन भवेदेष समासः कर्मधारयः ।। (कारिका ३४)। अग्निपुराण- कर्मधारयः सप्तधा नीलोत्पलमुख स्मृतः । विशेषणपूर्वपदो विशेष्योत्तरतस्तथा ।।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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