SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषयानुक्रमणी कर्मप्रवचनीय शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति, लोकोपचार से कर्मप्रवचनीय संज्ञा की मान्यता, उभयप्रामाण्य से विकल्प की सिद्धि, कर्मप्रवचनीय की परिभाषा ‘अवअपि' में अकारलोपविषयक भागुरि आचार्य का अभिमत, कुलचन्द्र - मैत्रेयरक्षित आदि के विचार, गत्यर्थक धातुओं के कर्म में द्वितीया - चतुर्थी विभक्तियाँ, चेष्टा की परिभाषा, विविध आचार्यों के मत, मन्-धातु के जिस कर्म से अनादर सूचित होता है, उसमें द्वितीया चतुर्थी विभक्तियों का विधान, 'नमः- स्वस्ति-स्वाहा स्वधाअलम्-वषट्' पदों के योग में चतुर्थी विभक्ति, उपपदविभक्ति की अपेक्षा कारकविभक्ति का बलीयस्त्व, कुछ अव्ययों का नियत प्रयोग, कुलचन्द्र-वैद्यतर्काचार्य के विचार, ‘अलम्' शब्द का अर्थपरक निर्देश, पर्याप्त्यर्थक अलम्शब्द के योग में चतुर्थी, तादर्थ्य में चतुर्थी, दुर्गसिंह द्वारा चान्द्रव्याकरण के सूत्र का समावेश, तुम्-समानार्थक भावप्रत्ययान्त शब्दों से चतुर्थी विभक्ति, श्रीपतिदत्त के मत की प्रशंसा, सहशब्द के योग में तृतीया विभक्ति, षष्ठी विभक्ति की तरह अप्रधान में तृतीया का विधान, हेत्वर्थ में तृतीया, अर्थ-शब्द का सुखार्थ प्रयोग, कारकों का विवक्षा से विधान, दो प्रकार का हेतु-शास्त्रीय-लौकिक, हेतु-करण में अन्तर, हेतु के अधीन कर्ता, कर्ता के अधीन करण, निन्दार्थबोधक अङ्गवाची शब्द से तृतीया विभक्ति, पाणिनि के विकार-शब्द की अपेक्षा कातन्त्रीय कुत्सा शब्द का पाठ अधिक स्पष्टावबोधक, शरीरार्थक अङ्गशब्द, विशेषणवाची शब्दों से तृतीया, समानाधिकरण – व्यधिकरण के रूप में दो प्रकार का विशेषण, विशेषण - विशेष्यशब्दों की व्युत्पत्ति, कर्तृसंज्ञक शब्द से तृतीया विभक्ति, वैचित्र्यार्थ चकारोपादान, कालवाची - भाववाची शब्दों से सप्तमीविभक्ति, कालशब्द के उपादान की अनर्थकता, प्रसिद्ध क्रिया की विशेषणरूपता, 'स्वामिन् – ईश्वर-अधिपतिदायाद-साक्षिन्-प्रतिभू-प्रसूत' शब्दों के योग में षष्ठी-सप्तमी विभक्तियाँ निर्धारण अर्थ की विवक्षा में षष्ठी-सप्तमी विभक्तियाँ, जाति-गुण-क्रिया के द्वारा समुदाय से एकदेश का पृथक्करण, हेतु-शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति, प्रयोग शब्द का सुखार्थ ग्रहण, स्मरणार्थक धातुओं के कर्म में षष्ठी विभक्ति, जयादित्य - श्रीपतिदत्तहेमकर आदि आचार्यों के विचार, संभ्रान्तिज्ञान भी अज्ञान है । प्रतियत्न अर्थ के
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy