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________________ १८० कातन्त्रव्याकरणम् [समीक्षा] 'देवदत्तेन हन्यते, चैत्रेण कृतम्' इत्यादि वाक्यों में कर्तृसंज्ञक 'देवदत्त-चैत्र' आदि शब्दों से तृतीया विभक्ति का विधान पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र है - "कर्तृकरणयोस्तृतीया" (अ० २।३।१८)। सूत्ररचनाशैली के अनुसार अन्तर यह है कि पाणिनि कर्ता तथा करण दोनों में ही तृतीयाविधान एक ही सूत्र द्वारा करते हैं, परन्तु शर्ववर्मा “शेषाः कर्मकरणसम्प्रदानापादानस्वाम्यायधिकरणेषु' (२।४।१९) सूत्र द्वारा क्रमप्राप्त करण कारक में तृतीया का निर्देश करने के बाद तृतीयाविधायक अन्य सूत्रों के प्रसङ्ग में प्रकृत सूत्र उपस्थित करते हैं, जिससे कर्ता कारक में तृतीया प्रवृत्त होती है । [रूपसिद्धि] १. देवदत्तेन हन्यते । देवदत्त + टा । देवदत्त के द्वारा मारा जाता है | हननक्रिया में स्वतन्त्र होने के कारण 'देवदत्त' की “यः करोति स कर्ता" (२।४।१४) से 'कर्ता' संज्ञा तथा प्रकृत सूत्र से उसमें तृतीया विभक्ति । "इन टा" (२।१।२३) से 'टा' को 'इन' तथा “अवर्ण इवणे ए" (१।२।२) से अकार को एकार-परवर्ती इकार का लोप । २. चैत्रेण कृतम् । चैत्र + टा | पूर्ववत् चैत्र की कर्तृसंज्ञा तथा प्रकृत सूत्र से उसमें तृतीया विभक्ति ।। ३१८। ३१९. कालभावयोः सप्तमी [२।४।३४] [सूत्रार्थ] विशेषण के रूप में प्रयुक्त कालवाची तथा भाववाची शब्दों से सप्तमी विभक्ति होती है ||३१९। [दु० वृ०] कालभावयोर्विशेषणीभूतयोर्वर्तमानाल्लिङ्गात् सप्तमी भवति । शरदि पुष्यन्ति सप्तच्छदाः । गोषु दुह्यमानास्वागतः । कालभावयोरिति किम् ? यो जटाभिः स भुङ्क्ते । यो भोक्ता स देवदत्तः इति साहचर्याद् वा प्रसिद्धा क्रियैव हि विशेषणम् । रुदतः प्राव्राजीदिति सम्बन्धविवक्षापि ।।३१९।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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