SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नामचतुष्टयाध्याये चतुर्षः कारकपादः १२५ [समीक्षा] पाणिनि ने अष्टाध्यायी में प्रथमा विभक्ति का विधान चार अर्थों में किया है - प्रातिपदिकार्थमात्र, लिङ्गमात्राद्याधिक्य, परिमाणमात्र तथा वचनमात्र में "प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमाने प्रथमा" (अ०२।३।४६) । कातन्त्रकार शर्ववर्मा ने लिङ्गार्थ तथा संख्यार्थ में ही प्रथमा विभक्ति की है। शेष अर्थ व्याख्यानबल से ही गृहीत हो जाते हैं । अतः व्याख्याकारों ने उनकी अनावश्यकता ही सिद्ध की है। पाणिनीयव्याख्याकारों के अनुसार अलिङ्ग तथा नियतलिङ्गवाले शब्द प्रातिपदिकार्थपद से लिए जाते हैं। जैसे- उच्चैः, नीचैः, कृष्णः, श्रीः, ज्ञानम् । लिङ्गमात्राद्याधिक्य के उदाहरण हैं अनियतलिङ्गवाले शब्द | जैसे- तटः, तटी, तटम् । परिमाणमात्र का उदाहरण 'द्रोणो व्रीहिः' माना जाता है। शर्ववर्मा ने इन सभी को लिङ्गार्थ ही स्वीकार किया है, जैसा कि वृत्तिकार दुर्गसिंह स्पष्टतः कहते हैं 'सर्वेऽप्यमी लिङ्गार्था अन्वयित्वाद् एकमर्थं द्वौ बहून् वा वदन्ति इत्यन्वर्थसंज्ञया एकस्मिन्नर्थे एकवचनम्, द्वयोर्द्विवचनम्, बहुषु बहुवचनम्' । सामान्यतया नाम, प्रातिपदिक या लिङ्ग के पाँच अर्थ माने जाते हैं - जाति, व्यक्ति (द्रव्य), लिङ्ग, संख्या तथा कारक । पाणिनि ने उक्त सूत्र में लिङ्ग तथा वचन (संख्या) का भी उपादान किया है । अतः वे प्रातिपदिक के दो ही अर्थ स्वीकार करते हैं - जाति तथा व्यक्ति । परन्तु शर्ववर्मा के अनुसार लिङ्ग (= प्रातिपदिक) के तीन अर्थ सिद्ध होते हैं - जाति, व्यक्ति तथा लिङ्ग | टीकाकार दुर्गसिंह दो ही अर्थों को मानने के पक्ष में हैं। [विशेष वचन] १. लिङ्गं चाव्यतिरिक्तपर्थं स्वभावात् प्रतिपादयति (दु० टी०)। २. लिङ्गं तु वस्तुमात्रस्याभिधायकम् (दु० टी०)। ३. कर्मादिशक्तयस्तु विभक्तिवाच्या एव (दु० टी०)। ४. नहि पदार्थः सत्तां जहाति (दु० टी०)। ५. अभेदविवक्षापि भेदपूर्विकैव (दु० टी०)।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy