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________________ नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः यह ज्ञातव्य है कि पाणिनीय व्याख्याकार अभिव्यापक आधार का उदाहरण प्रायः 'तिलेषु तैलम् ' प्रस्तुत करते हैं, परन्तु तिलसर्वांश में तैल की अभिव्याप्ति न देखे जाने के कारण (कल्कांश के भी रहने से ) कातन्त्रव्याख्याकार 'दिवि देवाः ' उदाहरण समीचीन मानते हैं। किसी ने इसे वैषयिक आधार का भी उदाहरण माना है । ६५ व्याख्याकारों के द्रष्टव्य विशेष वचन - १ . स आधारश्चतुर्विधः – औपश्लेषिकः, अभिव्यापकः, वैषयिकः, सामीपिकश्चेति (दु० टी० ) । २. अन्यथा प्रतिपत्तिरियं गरीयसीति ( दु० टी० ) । ३. औपचारिकोऽप्याधारः कैश्चिदिष्यते, तदयुक्तम् (वि० प० ) । ४. सा (क्रिया) च द्विविधा - कर्तृस्था कर्मस्था चेति (क० च० ) । ५. तुल्यजन्मा यः शक्तिविशेषः सोऽधिकरणम् (क० च० ) । ६. शक्तिशक्तिमतोरभेदादाधारपदेनात्र तिलादिरुच्यते (क० च० ) । ७. ‘आधारस्त्रिविधो ज्ञेय:' इति सर्वतान्त्रिकत्वाद् वररुचिमतमपास्तम् (क० च०)। ‘निर्देशः सम्प्रदानापादानप्रभृतिसंज्ञाभिः ' ( ना० शा० १४ । २३) इस वचन में प्रभृतिशब्द से अधिकरण का भी बोध होने के कारण इसे पूर्वाचार्यप्रयुक्त ही कहा जा सकता है । इस विषय में भाष्यव्याख्याप्रपञ्चकारद्वारा प्रस्तुत भागुरिमत भी द्रष्टव्य है ( पृ० १२९ ) । अर्वाचीन शाब्दिकाचार्यों ने भी इस संज्ञा का प्रयोग किया है । यथाजैनेन्द्रव्याकरण - आधारोऽधिकरण: ( १ । २।११६)। हैमशब्दानुशासन - क्रियाश्रयस्याधारोऽधिकरणम् (२।२।३० ) | मुग्धबोधव्याकरण - कालभावाधारं डंप्ती (सू० ३०९) । अग्निपुराण - आधारो योऽधिकरणं विभक्तिस्तत्र सप्तमी ( ३५० | २८ ) । नारदपुराण - ड्योस्सुपः सप्तमी तु स्यात् सा चाधिकरणे भवेत् || आधारे चापि ।। (५२।८-९) । -
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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