SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कातन्त्रव्याकरणम् (व्या० परि० १०८) इति न्यायात् समुदायस्यैव भविष्यति न त्ववयवानामित्याह- किञ्च इति । अर्थादनागते इति परसूत्रम् । अस्याः - अर्थशब्दादनागते भविष्यदर्थे इन् विधीयते, अर्थो धनमस्य भविष्यतीति । अस्मन्मते शब्दशक्तिस्वभावादेव वाचके प्रतीतिरिति घोषयन्तीति अनेन परमतं कटाक्षितमिति ।। ८० । [समीक्षा] (१) पाणिनि ने धातु-प्रत्ययवर्जित अर्थवान् जिन शब्दों की दो सूत्रों द्वारा 'प्रातिपदिक' संज्ञा की है - "अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्, कृत्तद्धितसमासाश्च" (अ०१/२/४५-४६), शर्ववर्मा ने उनके लिए 'लिङ्ग' इस सञ्ज्ञाशब्द का व्यवहार किया है । इन दोनों में यद्यपि प्रातिपदिक संज्ञा अधिक प्रसिद्ध है, तथापि लिङ्गसंज्ञा भी पूर्वाचार्यों- द्वारा प्रयुक्त हुई है। इस प्रकार दोनों में से किसी का भी गौरव या लाघव यद्यपि सिद्ध नहीं किया जा सकता, तथापि आकार की दृष्टि से लिङ्गसंज्ञा अवश्य ही लघु है, जब कि 'प्रातिपदिक ‘एक महती संज्ञा है। कैयट आदि व्याख्याकारों के मतानुसार एक या दो अक्षरों वाली ही संज्ञा की जानी चाहिए, क्योंकि लोकव्यवहारसम्पादन का लघु उपाय एक मात्र शब्दव्यवहार ही है, उसमें भी संज्ञा-व्यवहार तो और भी अधिक लाघवाधायक होता है । अतः संज्ञा को अत्यन्त लघु (एक या दो अक्षरों वाली) ही होना चाहिए। (२) व्याख्याकारों ने महती संज्ञा का एक प्रयोजन माना है - उसका अन्वर्थ होना । अन्वर्थ संज्ञा वह होती है, जिसका कोई लोकप्रचलित यौगिक अर्थ भी होता हो, परन्तु शास्त्र में उसका अर्थविशेष में नियमन किया गया हो – “सर्वार्थाभिधानयोग्यशब्दस्य शक्तिनियमनमात्रं सझाकरणम्। सर्वार्थाभिधानशक्तियुक्तः शब्दो यदा विशिष्टार्थे संव्यवहाराय नियम्यते तदा तत्रैव प्रतीतिं जनयति" (म० भा० प्र० १/१/२७, २०)। इस दृष्टि से 'पदं पदं प्रति प्रतिपदम्, तत्र भवम्' इस अर्थ के अभिप्रेत होने से यदि 'प्रातिपदिक' संज्ञा को अन्वर्थ माना जाता है, तो 'लिङ्ग्यते चित्र्यतेऽनेनैक देशेनार्यो गम्यते' इस अर्थ की सङ्गति से 'लिङ्ग' संज्ञा को भी अन्वर्थ सिद्ध किया जा सकता है। (३) शब्दशक्तिप्रकाशिकाकार के अनुसार नाम और प्रातिपदिक में कोई भेद नहीं किया जा सकता - "यत् प्रातिपदिकं प्रोक्तं तन्नाम्नो नातिरिच्यते"
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy