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________________ ४२५ नामचतुष्टयाध्याये तृतीयो पुष्पत्पादः [दु० टी०] अदसः।अदसस्तस्माच्च भिस् भिर् इति कृतेऽपि वाक्यार्थद्वयम् अर्थात् संभवति, गुरुप्रतिपत्तिकरं चेति पृथक् सूत्रम् उच्यते । किञ्च चकारोऽयम् अव्ययत्वादनेकार्थ इत्युत्तरत्रानग् इति न वर्तते इति प्रतिपत्तव्यमित्याह - चकार इत्यादि ।।२६०। [वि० प०] अदसः। अमीभिरिति । अदसो भिस्, त्यदाद्यत्वम्, भिरादेशः, "धुटि बहुत्वे त्वे" (२।१।१९), "अदसः पदे मः" (२।२।४५) इति मत्वम्, “ए बहुत्वे त्वी" (२।३।४२) ईत्वम् ।।२६०। [समीक्षा] 'अदस् +भिस्' इस अवस्था में सकार को अकार तथा पूर्ववर्ती अकार का लोप होने पर "भिसैस" (२।१।१८) से प्राप्त ऐस् आदेश न हो - एतदर्थ कातन्त्रकार ने भिस् को भिर् आदेश का विधान किया है । पाणिनि ने "नेदमदसोरकोः" (अ० ७।११११) से ऐसादेश का निषेध किया है, उससे भी 'भिस्' प्रत्यय के अनादिष्ट रहने पर 'अमीभिः' शब्दरूप सिद्ध होता है। [रूपसिद्धि] १. अमीभिः। अदस्+भिस् । “त्यदादीनाम विभक्तो" (२।३।२९) से सकार को अकार, “अकारे लोपम्" (२।१।१७) से पूर्ववर्ती अकार का लोप, प्रकृत सूत्र से भिस् को भिर्, “धुटि बहुत्वे त्वे" (२।१।१९) से दकारोत्तरवर्ती अकार को एकार, “एद् बहुत्वे त्वी" (२।३।४२) से एकार को ईकार, “अदसः पदे मः" (२१२।४५) से दकार को मकार तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से रेफ को विसगदिश ।।२६०। २६१. सावौ सिलोपश्च [२।३।४०] [सूत्रार्थ] सिप्रत्यय के परे रहते ‘अदस्' शब्द के अन्तिम वर्ण को 'औ' आदेश तथा सिप्रत्यय का लोप होता है ।।२६१ । [दु० वृ०] अदसोऽन्तस्यौर्भवति सौ परे सिलोपश्च । असौ, असकौ । साक्षात् साविति किम् ? असौ पुत्रोऽस्येति – 'अदः पुत्रः' ।।२६१ ।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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