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________________ कातन्त्रव्याकरणम् ४२४ (२।३।३५) इत्यकारः । ततः सन्निपातलक्षणत्वादेवैस् न भविष्यति, तत् किमनेनेति, नैवम् । वर्णग्रहणे निमित्तत्वादिह स्यादेव । ये पुनरेनादेशं प्रति वक्तव्यमाद्रियन्ते न सूत्रम्, तेषाम् इदम एवानन्तरत्वाद् अनुवृत्तिः सिद्धा, किं तस्माद्ग्रहणेन इत्याह -केचिद् इत्यादि । तस्माद्ग्रहणम् अद्विधेरनित्यार्थम् । तथा च प्रयोगो दृश्यते - "इमैर्गुणः सप्तर्षयः स्वर्ग गताः" इति । अयं पुनरपप्रयोग इति मन्यते, न च दर्शनान्तरपरमप्येवमस्तीति ।।२५९। [समीक्षा] 'इदम् + भिस्' इस अवस्था में म् को अ तथा अलोप हो जाने पर 'इद' यह अकारान्त शब्द दृष्ट होता है, इस 'इद' के स्थान में 'अ' आदेश होने पर भी अकारान्त ही शब्द रहता है, अतः 'भिस्' के स्थान में "मिसैस् वा" (२।१।१८) से 'ऐस्' आदेश प्राप्त होता है, वह न हो इसके निवारणार्थ 'भिर' आदेश करके 'एभिः' शब्दरूप कातन्त्रकार सिद्ध करते हैं | पाणिनि ने ऐस आदेश का निषेध ही किया है - "नेदमदसोरकोः" (अ०७।१।११) । इस प्रकार भी उक्त रूप ही सिद्ध होता है । अतः कार्यसंख्या की दृष्टि से किसी में भी गौरव नहीं कहा जा सकता। [रूपसिद्धि] १. एमिः। इदम् + भिस् । “त्यदादीनाम विभक्तो" (२।३।२९) से म् को अ, "अकारे लोपम्" (२।१।१७) से पूर्ववर्ती अकार का लोप, “अद् व्यानेनन्" (२।३।३५) से 'इद' को 'अ' प्रकृत सूत्र से भिस् को भिर, "धुटि बहत्वे त्वे" (२।१।१९) से अ को ए तथा “रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से रेफ को विसर्ग आदेश ||२५९। २६०. अदसश्च [ २।३।३९] [सूत्रार्थ] अक् - वर्जित अदस् - शब्द से परवर्ती भिस् प्रत्यय को 'भिर्' आदेश होता है ।।२६०। [दु० वृ०] अदसोऽग्वर्जितात् परो भिस् भिर् भवति । अमीभिः । 'अनक्' इति किम् ? अमुकैः । चकार उत्तरत्रानग्निवृत्त्यर्थः ।। २६०।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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