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________________ १५८ कातन्त्रव्याकरणम् पूर्वस्वरमापद्यते सश्च नो भवत्यस्त्रियाम् । अत आह - तत्रास्त्रियामिति । तत्रेति । "शसोऽकारः सश्च नोऽस्त्रियाम्" (२।१।५२) इत्यस्मिन् ।। १४४ । [क० च०] अग्निवत् । ननु अग्नेर्यत् कार्यं तदन्तस्यापि शसि परे भवतीत्युक्ते एदोतौ कथं न स्याताम् इति चेत्, न । अयमर्थः कार्यः । शसि परे अग्नेर्यत् कार्यं दृष्टं तद् ऋदन्तस्य भवतीति श्रुतत्वाच्छसि परे तदेवेति कुत एदोतोः प्रसङ्ग इति हेमकरहृदयम् ।। १४४। [समीक्षा] 'पितृ + शस्' इस अवस्था में कातन्त्रकार ऋदन्त लिङ्ग को अग्निवत् अतिदेश करते हैं । इस अग्निवत् अतिदेश से शस्प्रत्ययस्थ अ को पूर्वस्वरादेश, स् को न् तथा समानलक्षण दीर्घ करके 'पितॄन्' शब्द का साधुत्व निश्चित करते हैं । पाणिनि के अनुसार स् को न् तथा 'ऋ-अ' इन दो वर्गों के स्थान में "प्रथमयोः पूर्वसवर्णः" (अ० ६।१।१०२) से पूर्वसवर्णदीर्घ 'क' होने पर 'पितॄन्' शब्द सिद्ध होता है | इस प्रकार कातन्त्रकार ने अतिदेश करके प्रक्रियागौरव अवश्य किया है, परन्तु पूर्वाचार्यों के अनुरोध से पुंल्लिङ्ग इकारान्त-उकारान्त शब्दों की इस व्याकरण में जो ‘अग्नि' संज्ञा की गई है, उसके निर्वाहार्थ तत्प्रयुक्त कार्य करने के लिए अतिदेश करना अत्यन्त आवश्यक है। [रूपसिद्धि] १. पितृन् । पितृ + शस् । प्रकृत सूत्र से अग्निवद्भाव होने के कारण "शसोऽकारः सश्च नोऽस्त्रियाम्" (२।१।५२) से शस्प्रत्ययघटित अकार को पूर्वस्वर ऋकारादेश, सकार को नकार तथा “समानः सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोपम्" (१।२।१) से पूर्ववर्ती ऋकार को दीर्घ-परवर्ती ऋकार का लोप ।। १४४। १४५. अर डौ [२।१।६६] [सूत्रार्थ] सप्तमीविभक्ति एकवचन ‘ङि' प्रत्यय के पर में रहने पर ऋकारान्त लिङ्ग= प्रातिपदिक के अन्त्यावयव 'ऋ' को 'अर्' आदेश होता है ।। १४५ ।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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