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________________ प्रास्ताविकम् २. वैदिक, अन्यशास्त्रनिरत, वणिक्, धनिक वर्ग आदि को सरलता से शब्दसाधुत्व का बोध कराना आदि । ३. वेदाङ्गत्वाङ्गीकार-वैशिष्ट्य वैदिक शब्दों के साधुत्वहेतु नियम न बनाने मात्र से अर्थात् लौकिक शब्दों के ही साधनार्थ सूत्र बनाने से उस व्याकरण को वेदाङ्ग - बहिर्भूत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वैदिक शब्द अत्यन्त अल्प हैं, उनका ज्ञान तो शिष्ट जनों द्वारा किया जा सकता है, परन्तु लौकिक शब्द असंख्य हैं, उनके साधुत्वहेतु लक्षण बनाना अत्यन्त आवश्यक होता है । दूसरी बात यह कि वेदों में भी तो अधिकांश लौकिक शब्दों का ही प्रयोग हुआ है, ऐसे शब्दों की संख्या अत्यन्त न्यून है, जो केवल वेद में ही प्रयुक्त हुए हैं। इस प्रकार केवल लौकिक शब्दों का भी साधुत्व बताने वाले व्याकरण को वेदाङ्ग कहा ही जा सकता है । ४. सूत्रशैली - वैशिष्ट्य १. पूर्वाचार्यों की तरह कातन्त्रकार ने भी कार्यों का निर्देश प्रथमान्त, कार्य का द्वितीयान्त तथा निमित्त का सप्तम्यन्त किया है - " अकारो दीर्घं घोषवति” (२।१।१४) । २. अर्थकृत लाघव को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट निर्देश किए गए हैं – “अवर्ण इवर्णे ए, उवर्णे ओ, ऋवर्णे अर्, ॡवर्णे अल्” (३।२।२-५) । ३. प्रत्याहारों के अभाव में स्वर- व्यञ्जन जैसे लोकप्रचलित शब्दों का प्रयोग किया गया है - "स्वरेऽक्षरविपर्ययः, व्यञ्जने चैषां निः" (२।५।२३; २।३८)। ४. शप्-तिप्-सिप्-मिप् इत्यादि प्रत्ययों में पाणिनि ने प् अनुबन्ध पित्स्वरार्थ किया है । कातन्त्रकार ने स्वरार्थ अनुबन्धों की योजना नहीं की है । ५. वर्णसमाम्नाय तथा लोकव्यवहार - प्रयुक्त वैशिष्ट्य क्योंकि कातन्त्रकार १. पाणिनि ने ९ स्वर माने हैं, जबकि कातन्त्रकार ने १४, ने आ-ई-ऊ-ॠ ॡ इन दीर्घ वर्णों को भी वर्णसमाम्नाय में पढ़ा है । 'अनुस्वार - विसर्ग
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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