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________________ कातन्त्रव्याकरणम् Dictionary of sanskrit grammar में कहा है कि कुछ विद्वान् अमरसिंह तथा दुर्गसिंह को अभिन्न मानते हैं । कलापव्याकरण (वं० सं० १२९६ = शक सं० १८११= १८८९ ई०) के इतिवृत्त ( पृ०६) में संपादक ने भी जो लिखा है, उससे उक्त का समर्थन होता है । उनके अनुसार पाणिनीय व्याकरण में असाधारण वैदुष्य प्राप्त कर दुर्गसिंह ने नामलिङ्गानुशासन की रचना की, इससे प्रसन्न होकर विक्रमादित्य ने उन्हें अमरसिंह की उपाधि दी थी । अतः दुर्गसिंह का ही परवर्ती नाम अमरसिंह हुआ था और वे विक्रमादित्य के नव रत्नों में भी अन्यतम रत्न थे - दुर्गसिंहप्रचारिते नामलिङ्गानुशासने । लभते ह्यमरोपाधिं राजेन्द्रविक्रमेण सः ॥ वद्याकीर्तिप्रभावेणामरत्वं लभते ३६ नरः । स रत्नं नवरत्नानां तद्गुणेन सुशोभितः ॥ कलाप के वङ्गलिपिवाले ग्रन्थों में एक प्राचीन श्लोक उद्धृत मिलता है, जिसमें कहा गया है – शबरस्वामी की शूद्रजातीया पत्नी से अमरसिंह का जन्म हुआ था । ये विक्रमादित्य के भाई थे । यह इतिहास से प्रमाणित न भी हो सके तो भी दुर्गसिंह और अमरसिंह को अभिन्न मानकर उनका देश उज्जयिनी कहा जा सकता है, क्योंकि अमरसिंह विक्रमादित्य के अन्यतम सभारन थे और विक्रमादित्य की राजधानी उज्जयिनी अत्यन्त प्रसिद्ध है । इनके नामैकदेश 'सिंह' के स्थान पर कहीं-कहीं 'सिम' पाठ मिलता है, जो कश्मीरीभाषा के अनुसार माना जाता है । इसलिए कुछ विद्वान् दुर्गसिंह को कश्मीर-देशीय मानना चाहते हैं । इन्हें बौद्ध और शैव दोनों ही सिद्ध किया जाता है । सीतानाथ सिद्धान्तवागीश के मतानुसार ये शैव थे (द्र०, नमस्कारसञ्जीवनी, पृ० २४२-४३) । युधिष्ठिर मीमांसक के विवेचनानुसार इन्हें वैदिक भी कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त निम्नाङ्कित कुछ वचन ऐसे हैं, जो इन्हें बौद्ध सिद्ध करते हैं । जैसे ‘देवदेवं प्रणम्यादौ सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम्' में 'सर्वज्ञ' पद तथा " भग्नं मारबलं येन निर्जितं भवपञ्जरम् । निर्वाणपदमारूढं तं बुद्धं प्रणमाम्यहम् ॥ स्वयम्भुवम् । शिवमेकमजं बुद्धमर्हदक्रयं कातन्त्रवृत्तिटीकेयं नत्वा दुर्गेण रच्यते ॥" में 'बुद्ध' पद |
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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