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________________ प्रास्ताविकम् वृत्तिकार दुर्गसिंह का परिचय कातन्त्र-वाङ्मय में दुर्गसिंह का योगदान महान् और अविस्मरणीय है । कहा जाता है कि कातन्त्ररूपी दुर्ग में सिंह की तरह निर्भय होकर विचरण करने के कारण ही इन्हें दुर्गसिंह कहते थे । कातन्त्रलिङ्गानुशासन के अन्त में दुर्गसिंह के तीन नाम बताए गए हैं – 'दुर्गात्मा दुर्ग, दुर्गप' । संस्कृतवाङ्मय में दुर्ग अथवा दुर्गसिंह-द्वारा रचित अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। गुरुपद हालदार ने कातन्त्रवृत्तिकार को नवम-दशम शताब्दी का माना है | युधिष्ठिर मीमांसक अनेक प्रमाण देकर निरुक्तवृत्तिकार तथा कातन्त्रवृत्तिकार को एक ही व्यक्ति तथा उनका समय वि० सं० ६०० से ६८० के मध्य सिद्ध करते हैं । जैसे उन्होंने कहा है कि दुर्गाचार्यविरचित निरुक्तवृत्ति के अनेक हस्तलेखों के अन्त में दुर्गसिंह अथवा दुर्गसिम नाम उपलब्ध होता है । दोनों ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थ को वृत्ति कहा है । दोनों ग्रन्थों के रचयिताओं के लिए 'भगवत्' शब्द का व्यवहार मिलता है । हरिस्वामी ने सं० ६९५ में शतपथ ब्राह्मण के प्रथम काण्ड का भाष्य लिखा था । उनके गुरु स्कन्दस्वामी ने अपनी निरुक्तटीका में दुर्गाचार्य का उल्लेख किया है । इस प्रकार निरुक्तवृत्तिकार से कातन्त्रवृत्तिकार अभिन्न व्यक्ति सिद्ध होते हैं । दुर्गसिंह का कोई निश्चित देश अभी तक ज्ञात नहीं है | "सिद्धो वर्णसमाम्नायः" (कात० १।१।१) सूत्र की व्याख्या में दुर्गसिंह ने तीन अर्थों के उदाहरण दिए हैं - 'सिद्धमाकाशम्, सिद्ध ओदनः, सिद्धः काम्पिल्लः' । ज्ञातव्य है कि 'सिद्ध' शब्द के नित्य, निष्पन्न और प्रसिद्ध ये तीन अर्थ होते हैं । इन्हीं अर्थों के क्रमानुसार उदाहरण भी दिए गए हैं। प्रसिद्ध अर्थ का उदाहरण है - काम्पिल्लः | इस शब्द की दो व्याख्याएँ मिलती हैं- १. उत्तर देश में बहने वाली कम्पिला नदी के समीपवर्ती देश को काम्पिल्ल कहते हैं । २. विक्रमादित्य के मङ्गल हाथी का नाम काम्पिल्ल था | प्रथम व्याख्या को प्रामाणिक मान लेने पर दुर्गसिंह को उत्तरभारतीय काम्पिल्ल देश से सम्बद्ध मानना पड़ेगा, क्योंकि साक्षात् उसी देश में या उसके समीप विना निवास किए काम्पिल्ल की प्रसिद्धि से वे सुपरिचित नहीं हो सकते और ऐसा न होने पर प्रसिद्ध अर्थ का वे यह उदाहरण भी नहीं देते । दूसरी व्याख्या के अनुसार दुर्गसिंह को उज्जयिनी-निवासी कहा जा सकता है । प्रो० के० वी० अभ्यङ्कर ने
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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