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________________ २९० कातन्वव्याकरणम् ___अन्ये तु "इवर्णो यमसवणे" (१। २। ८) इत्यत्रासवर्णग्रहणात् परनिमित्तानपेक्षकार्यस्यासंहितायामपि विषय इति “नामिपरो रम्” (१ । ५। १२) इत्यत्रोक्तम् । अतोऽत्रासंहितायामपि स्यादिति परग्रहणमित्याहुः । दीर्घादिति, येषां 'नित्यदीर्घाणि सन्ध्यक्षराणि' तन्मतेनेदमुक्तम् । तेन रैछाया, रैच्छाया । नौछाया, नौच्छाया इति । अस्मन्मते दीर्घग्रहणं गुरूपलक्षणम् । पदान्तादिति किम् ? ऋच्छति । दीर्घादिति किम् ? स्वच्छत्रम् । नित्यं स्यात् । सामर्थ्य एवास्य विषयस्तेन ‘तिष्ठतु कन्याच्छन्दस्त्वम् अधीष्व' इति नित्यं स्यादिति श्रीपतिः। टीकाकारमते तु तद्विशेषाभावादत्रापि विकल्प एवेति ||७९। ॥ इत्याचार्यकविराजसुषेणशर्मविरचितकलापचन्द्रे सन्धौ पञ्चमो विसर्जनीयपादः समाप्तः॥ [समीक्षा] 'वृक्ष + छाया, इ+ छति, ग+ छति' इस अवस्था में 'छ' वर्ण को द्वित्व तथा "अघोषे प्रथमः" (२। ३। ६१) सूत्र से छ् को च् आदेश करके कातन्त्रकार 'वृक्षच्छाया, इच्छति, गच्छति' इत्यादि शब्दरूप निष्पन्न करते हैं । पाणिनि के अनुसार यहाँ संहिताधिकार में “छे च" (६। १। ७३) से तुगागम, "स्तोः श्चुना श्चुः" (८। ४। ४०) से प्राप्त श्चुत्व के असिद्ध होने के कारण "झलां जशोऽन्ते" (८।२। ३९) से त् को द्, इस द् को "खरि च" (८| ४ | ५५) सूत्र से प्राप्त चर्व के असिद्ध होने से "स्तोः श्चुना श्युः" (८।४। ४०) सूत्र द्वारा ज् तथा "खरि च" (८।४।५५) से ज् को च् आदेश होकर 'शिवच्छाया, स्वच्छाया' आदि शब्दरूप सिद्ध होते हैं। ___ इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है । यह भी ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने तुगागम के लिए चार सूत्र बनाए हैं - "छे च, आङ्माडोश्च, दीर्घात्, पदान्ताद् वा" (६।१।७३-७६) । परन्तु कातन्त्रकार ने तुगागम के लिए छकार के द्वित्वमात्र का विधान केवल एक सूत्र द्वारा करके सरलता तथा संक्षेप ही प्रदर्शित किया है।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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