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________________ सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः २४५ उपर्युक्त स्थिति में स्थान- प्रयत्नों को मिलाकर देखने पर यह विदित होता है कि बाह्य प्रत्यत्नों में भी प्रत्येक वर्ग के दो दो वर्ण समान प्रयत्न वाले रह जाते हैं । आभ्यन्तर प्रयत्न में तो वर्गीय पाँचों वर्गों का स्पृष्ट ही प्रयत्न होता है । बाह्य प्रयत्न के अनुसार ग् को हटाने के लिए नासिकास्थान का आश्रय लेना पड़ता है । यतः अनुस्वाररूप स्थानी वर्ण का स्थान नासिका है और वह कवर्गीय वर्गों में से केवल ङ् का ही होता है। अन्य प्रथम- द्वितीयादि वर्गों का नहीं । अतः कवर्ग के परवर्ती होने पर अनुस्वार के स्थान में ङ् ही परसवर्ण होता है। यह विधि पाणिनीय व्याकरण की है। सामान्यतया किसी भी वर्ग के पञ्चम वर्ण को जानने की अपेक्षा परसवर्ण विधि से पञ्चम वर्ण जानना अत्यन्त प्रयत्नसाध्य है। [रूपसिद्धि] १. त्वङ्करोषि- त्वं करोषि । त्वम् करोषि । व्यञ्जनवर्ण के पर में रहने पर पदान्तवर्ती म् को " मोऽनुस्वारं व्यञ्जने" (१।४।१५) से अनुस्वार तथा विकल्प से प्रकृत सूत्र-द्वारा अनुस्वार को कवर्गीय पञ्चम वर्ण ङ् आदेश = त्वङ्करोषि | पञ्चमवर्णा देश के अभाव में = त्वं करोषि । २. त्वञ्चरसि- त्वं चरसि । त्वम्+ चरसि | व्यञ्जन वर्ण के परवर्ती होने पर पदान्त म् को अनुस्वार तथा उसको वैकल्पिक वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेशत्वञ्चरसि । वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश में अनुस्वारघटित रूप= त्वं चरसि । ३. पुम्भ्याम्- पुंभ्याम् । पुम्+भ्याम् । व्यञ्जन वर्ण के पर में रहने पर पदान्तवर्ती म् को अनुस्वार तथा उसको वैकल्पिक वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश = पुम्भ्याम् । वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश के अभाव में अनुस्वारघटित रूप = घुभ्याम् ।।६१। ॥ इति सन्धिप्रकरणे समीक्षात्मकश्चतुर्थो वर्गपादः समाप्तः ॥
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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