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________________ २४४ कातत्वव्याकरणम् विशेषविहितत्वादित्युक्तमित्याहुः । वस्तुतस्तु उभयोः सावकाशत्वाभावात् परत्वं न संगच्छते इत्याह-विशेषविहितत्वादिति । तेन हेमकरमतमेव प्रमाणमिति ।। ६१ । ॥ इति कलापचन्द्रे प्रथमे सन्धिप्रकरणे चतुर्थो। वर्गपादः समाप्तः॥ [समीक्षा] 'त्वम्+ करोषि, त्वम् +चरसि, पुम्+ भ्याम्' इस स्थिति में म् के स्थान में “मोऽनुस्वारं व्यञ्जने" (१।४।१५) से अनुस्वार आदेश तथा प्रकृत सूत्र “वर्गे तद्वर्गपञ्चमं वा" (१।४।१६) से अनुस्वार के स्थान में परवर्ती वर्गीय वर्ण का वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश होकर 'त्वङ्करोषि, त्वञ्चरसि, पुम्भ्याम्' शब्दरूप निष्पन्न होते हैं । पक्ष में वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश न होने पर 'त्वं करोषि, त्वं चरसि, पुंभ्याम्' रूप भी साधु माने जाते हैं | पाणिनीय व्याकरण में भी “मोऽनुस्वारः" (८।३।२३) से अनुस्वारादेश तथा "वा पदान्तस्य" (८।४।५९ ) से वैकल्पिक परसवर्णा देश होकर उक्त रूप सिद्ध होते हैं। क्, च् तथा भ् वर्गों के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अनुस्वार के स्थान में यदि क्रमशः ङ्, ञ् तथा म् आदेश करना हो तो कवर्ग, चवर्ग एवं पवर्ग का पञ्चम वर्ण आदेश करना अधिक सुविधाजनक कहा जा सकता है, परसवर्णा देश विधान की अपेक्षा । उदाहरणार्थ यदि त्वङ्करोषि' को लिया जाए, तो निम्नाङ्कित के अनुसार स्थान-प्रयत्न मिलाने के बाद ही यह निश्चय किया जा सकता है कि कवर्ग के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अनुस्वार के स्थान में '' आदेश उपपन्न होगा स्थान नासिका अनुस्वार (म्-स्थानिक) कण्ठ क, ख, ग, घ, ङ वर्ण नासिका प्रयत्न (आ०) स्पृष्ट (बा०) अल्पप्राण, संवार, नाद, घोष क, ख, ग, घ, ङ, म (अनुस्वार)। ग्, ङ, म् (अनुस्वार)
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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