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________________ १५१ सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः इस प्रकार इक् के स्थान में यण आदेश का आन्तरतम्य सिद्ध नहीं हो पाता । इसके समाधानार्थ वर्णसमाम्नाय में पठित प्रत्येक वर्ण को ही आधार मानना पड़ता है । 'इको यण्' इस निर्देश में अल्पशब्दप्रयोग की दृष्टि से शब्दलाघव तो कहा जा सकता है, परन्तु उक्त समग्रबोध के लिए जो पर्याप्त आयास करना पड़ता है, उसकी अपेक्षा तो कलाप का ही सूत्रपाठ सरल कहा जा सकता है | जिसमें इवर्ण के स्थान में यकारादेश-हेतु एक स्वतन्त्र सूत्र है । इसी प्रकार उवर्ण के स्थान में वकारादेश-हेतु, ऋवर्ण के स्थान में रकारादेश-हेतु एवं तृवर्ण के स्थान में लकारादेश-हेतु पृथक्-पृथक् सूत्र हैं । [विशेष] सूत्र १।२।१ (२४) से सूत्र-सं० १।२।७ (३०) तक परवर्ती वर्ण का लोप भी करना पड़ता है, परन्तु इस सूत्र में उसका शब्दोल्लेखपुरस्सर निषेध किया गया है। [रूपसिद्धि] १. दध्यत्र | दधि+ अत्र (इ+अ)। परवर्ती असवर्ण स्वर अ के होने पर पूर्ववर्ती इ के स्थान में य् आदेश तथा परवर्ती अ के लोप का निषेध | २. नयेषा | नदी + एषा (ई+ए) । असवर्ण स्वर ए के पर में होने से पूर्ववर्ती ई के स्थान में यकारादेश तथा परवर्ती ए के लोप का निषेध । इस विधि के सुध्युपास्यः आदि कुछ उदाहरण पर्याप्त प्रसिद्ध हैं ।।३१। ३२. वमुवर्णः (१।२।९) [सूत्रार्थ] असवर्ण स्वर के पर में रहने पर पूर्ववर्ती उवर्ण के स्थान में वकारादेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता ।।३२। [दु० वृ०] उवर्णो वमापद्यते असवर्णे, न च परो लोप्यः । मध्वत्र, वध्वासनम् ।। ३२। [क० च०] वमु० । ननु कथं मध्वत्रेति वृत्ताबुदाहृतम् ? “समानस्य नामिनः" इत्यादिना प्रकृतिभावस्य विषयत्वात् । नैवम्, तस्य विकल्पपक्षे वत्वस्य सम्भवात् ।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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