SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कातन्त्रव्याकरणम् ३. ‘प्रार्च्छति' के लिए वार्त्तिक है - " ऋति धातोरुपसर्गस्य दीर्घः” तथा ‘प्रार्षभीयति – प्रर्षभीयति' आदि की सिद्धि के लिए - “ नामधातोर्वा ” । इनके अनुसार ‘अर्’ आदेश -घटित ‘अ’' को दीर्घ होकर आर् रूप हो जाता है । [रूपसिद्धि] १३६ १ . तवर्कारः। तव + ऋकारः ( अ + ऋ) । वकारोत्तरवर्ती अ के स्थान में अर् आदेश तथा परवर्ती ॠ का लोप । २. सर्कारेण । सा + ऋकारेण (आ + ऋ) । पूर्ववर्ती आ के स्थान में अर् आदेश एवं परवर्ती ऋ का लोप । इस विधि के 'कृष्णर्द्धि:' आदि उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं ||२७| २८. लुवर्णे अल् (१।२।५ ) [सूत्रार्थ] ऌवर्ण के पर में रहने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'अल्' आदेश तथा परवर्ती ॡवर्ण का लोप होता है ||२८| [दु० वृ०] अवर्णः ॡवर्णे परे अल् भवति परश्च लोपमापद्यते । तवल्कारः, सल्कारेण । उपसर्गस्य वा कृति धातोरलो दीर्घः । उपात्कारीयति, उपकारयति ॥ २८| [वि० प०] ऌवर्णे० । उपसर्गस्येत्यादि । अत्रापि पूर्ववद् दीर्घादिकं वेदितव्यम् ||२८| [क० च०] ऌवर्णे० । असंहिताकरणात् तव-सयोः लृकारे परे अल् न सम्भवति ।‘तवल्तकः, सल्तकः' इति वररुचिः। तन्त्रान्तरे' अदृष्टमिदमिति ||२८| [समीक्षा] पाणिनि के अनुसार अवर्ण तथा तृवर्ण दोनों के स्थान में 'अ' रूप एक गुण आदेश होता है और " उरण् रपरः " ( पा० ११।५१ ) में पठित रपर से लपर १. तन्त्रान्तरशब्देन प्रायः पाणिनीयं व्याकरणं स्मर्यते ।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy