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________________ सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः १३५ तदप्रमाणम्, 'तन्त्रान्तरेऽदृष्टत्वात् । ऋते चेति न वक्तव्यम्, आर्तशब्देनैव शीतार्तादयः सिद्धाः किमनेनेति नैवम्, ऋतेऽनिष्टप्रयोगापत्तेः । यत्र चायम् ऋति दीर्घस्तत्र च ऋकारे समानस्य प्रकृतिभावो विभाषयेति प्रकृतिर्नेष्यते इति श्रीपतिः! ननु यदि यक्रियायुक्ताः प्रादयस्तमेव शब्द प्रति उपसर्गा इत्युच्यते, तदा कथं प्रगतोऽध्वानं प्राध्वो रथः, प्रत्यध्वं शकटमित्यादि "उपसर्गादध्वन्" (२।६।७३-३२) इत्यत्प्रत्ययः ? नैवम् । अत एव वचनाद् अन्तर्भूतक्रियासम्बन्धस्यापि उपसर्गता इत्यदोषः। अन्यथा अप्रत्ययविधायकसूत्रमेव व्यर्थं स्यादिति संक्षेपः ।।२७। [समीक्षा] पाणिनि के अनुसार अवर्ण और ऋवर्ण दोनों के स्थान में 'अ' गुण होता है । “उरण रपरः" (पा० १।१।२१) से रपर करने के बाद कृष्ण + ऋद्धिः = कृष्णर्द्धिः आदि शब्दरूप सिद्ध होते हैं । शर्ववर्मा के अनुसार पूर्ववर्ती अवर्ण के ही स्थान में 'अर्' आदेश तथा परवर्ती ऋवर्ण का लोप होकर 'तवारः, सर्कारेण' आदि प्रयोग साधु माने जाते हैं। सूत्र-संख्या २५-२६ की ही तरह यहाँ भी दो स्वरों के स्थान में होने की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में रेफसहित 'अर्' आदेश करना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। [विशेष] १. वृत्तिकार दुर्गसिंह ने 'ऋणार्णम्, प्रार्णम्' आदि की सिद्धि के लिए एक वार्त्तिक पढ़ा है - "ऋण-प्र-वसन-वत्सतर-कम्बल-दशानामृणे क्वचिदरोऽपि दीर्घता"। इसके अनुसार पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में ‘आर्' आदेश होता है, जिससे उक्त शब्दरूप निष्पन्न होते हैं। २. 'शीतार्तः' आदि की सिद्धि के लिए वार्त्तिक पढ़ा गया है - "ऋते च तृतीयासमासे"। कुछ व्याख्याकार 'शीतेन ऋतः' यह व्युत्पत्ति न मानकर 'शीतेन आर्तः' मानते हैं । इस प्रकार वार्तिक की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । १. तन्त्रान्तर - शब्देन प्रायः पाणिनीयं व्याकरणं स्मर्यते ।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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