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________________ कातन्त्रव्याकरणम् सूत्रपठित 'सिद्ध' शब्द के यद्यपि व्याख्याकार ३ अर्थ करते हैं - नित्य, निष्पन्न तथा प्रसिद्ध, परन्तु वर्णसमाम्नाय के सम्बन्ध में उन्हें प्रसिद्ध अर्थ ही मुख्यतः मान्य है, जबकि “सिद्ध शब्दार्थसम्बन्धे” (वा० सू० १) इस वार्त्तिक में पठित 'सिद्ध' शब्द के अर्थ महाभाष्यकार आदि नित्य-कार्य स्वीकार करते हैं (द्र०, म० भा०, पस्पशाह्निक)। पञ्जिकाकार त्रिलोचन के अनुसार सिद्ध शब्द के उल्लिखित तीन अर्थों का आधार है - व्याकरणशास्त्र का सर्वपारिषदरूप होना - ‘सर्वपारिषदत्वाद् व्याकरणस्यार्थत्रयं घटते' । ज्ञातव्य है कि तैत्तिरीय प्रातिशाख्यकार आदि वर्गों को अनित्य मानते रहे हैं - "विनाशो लोपः" (तै० प्रा०१।५८)। परन्तु वाजसनेयिप्रातिशाख्यकार - पाणिनि आदि वर्णनित्यतावादी हैं - "वर्णस्यादर्शनं लोपः" (वा० प्रा० १।१४१); "अदर्शनं लोपः" (पा० १।१।६०)। इनके अतिरिक्त वर्णविषयक तृतीय पक्ष रहा है - 'उनका लोकव्यवहार में प्रचलित तथा प्रसिद्ध होना ।' इन्हीं तीन दृष्टियों से 'सिद्ध' शब्द के उक्त तीन अर्थ किए जाते हैं। व्याख्याकारों ने “सिद्धो वर्णसमाम्नायः"- सूत्रपठित 'सिद्ध' शब्द को ग्रन्थारम्भ में मङ्गलार्थक माना है | पञ्जिकाकार के विचार से कातन्त्रसूत्रकार ने “अथ परस्मैपदानि" (३।१।१) सूत्रस्थ 'अथ' शब्द से मध्यमङ्गल तथा "आरुत्तरे च वृद्धिः" (३।८।३५) सूत्रस्थ 'वृद्धि' शब्द से अन्तिम मङ्गल किया है । पाणिनीय व्याकरण में भी 'वृद्धि' शब्द से आदि मङ्गल (१1१1१), वकारागम (१।३।१) से मध्यमङ्गल तथा उदय या अकार से (८।४।६७, ६८) अन्तमङ्गल किया गया है। कलापचन्द्र के अनुसार विदुषी रानी-द्वारा किया गया राजा सातवाहन का उपहास ही कातन्त्रव्याकरण की रचना का प्रेरणासूत्र है और स्वामिकार्तिकेय के अनुग्रह से आचार्य शर्ववर्मा ने इसकी रचना की थी। प्रसङ्गतः व्याख्याओं में सूत्रों के ४ तथा ६ भेद, प्रत्येक सूत्र की व्याख्या के छह प्रकार, परिभाषा-नियम की व्याख्या एवं 'समाम्नाय-सिद्ध-विधायि' प्रभृति शब्दों की व्युत्पत्ति भी दी गई है। वर्णसमाम्नाय को अक्षरसमाम्नाय तथा वाक्समाम्नाय भी कहते हैं । ऋक्तन्त्र के अनुसार इसकी उपदेशपरम्परा इस प्रकार है- 'ब्रह्मा-बृहस्पति इन्द्र-भरद्वाजऋषिवृन्द-ब्राह्मण' । -
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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