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________________ सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्ज्ञापादः कातन्त्ररूपमालाकार भावसेन अ से ह तक ४७ वर्ण ही स्वीकार करते हैं" अकारादि हान्तं सप्तचत्वारिंशद् वर्णाः” (कात० रू० मा० १ । १ । १ ) | परन्तु सम्पादकीय टिप्पणी में ५३ वर्णों का परिगणन किया गया है - अ से औ तक = १४ स्वर क्से क्ष्तक ३४ व्यञ्जन अनुस्वार - विसर्ग - जिह्वामूलीय उपध्मानीय प्लुत । योग - ५३ = व्यञ्जनानि चतुस्त्रिंशत् स्वराश्चैव चतुर्दश । अनुस्वारो विसर्गश्च जिह्वामूलीय एव च ॥ १ ॥ गजकुम्भाकृतिर्वर्णः प्लुतश्च परिकीर्तितः । एवं वर्णास्त्रिपञ्चाशन्मातृकाया उदाहृताः ॥२॥ ४१ (कात० रू० मा० १ । १ ।१) अस्तु, कलापव्याकरण के ४७, ४९, ५१, ५२ या ५३ वर्णों वाले पाठक्रम में अर्थकृत लाघव तथा पाणिनीय व्याकरण के ४२ वर्णों वाले पाठक्रम में शब्दकृत लाघव माना जा सकता है । यद्यपि ये दोनों ही वर्णसमाम्नाय बुधजनों द्वारा समादृत हैं, तथापि कलापीय वर्णसमाम्नाय शास्त्र तथा लोक दोनों में ही उपादेय है, जबकि पाणिनीय वर्णसमाम्नाय केवल पाणिनीय शास्त्र के लिए ही उपयोगी है | अतः उपयोगिता - बाहुल्य की दृष्टि से कलापव्याकरण के वर्णसमाम्नाय को ही प्रशस्त कहा जा सकता है । व्याख्याकारों के अनुसार यह सूत्र सञ्ज्ञासूत्र या नियमसूत्र है । कलाप के वर्णसमाम्नाय से यह स्पष्ट है कि इसमें प्रत्याहारप्रक्रिया नहीं अपनाई गई है, जिससे कहीं-कहीं सूत्रों में शब्दावली बड़ी हो गई है या एक से अधिक सूत्र बनाने पड़े हैं, परन्तु प्रत्याहारप्रक्रिया के ज्ञानार्थ प्राप्त क्लेश का अनावश्यक सामना भी नहीं करना पड़ता है ।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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