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________________ नाम अने आहारकटिक वर्जी शेष प्रकृतिओना बंधना हेतुओ छे. जिननाम अने माहारकद्विक समकित अने संयमथी बंघाय छे माटे एनुं वर्जन कयु. ८५. न सम्यक्त्वमिश्रवन्धनसङ्घातानाम् ।। समकितमोहनीय अने मिश्रमोहनीयनो बंध होतो नथी, बंधननो अने संघातमनो औदारिक आदि शरीरमा समावेश थतो होवाथी ए प्रकृतिओ बंधमा प्रहण करी नथी. ८६. कृष्णादिविंशतौ वर्णगन्धरसस्पर्शाः ।। कृष्णवर्णनाम आदि वीस प्रकृतिमोमांथी वर्णनाम, रसनाम, गंधनाम अने स्पर्शनाम ए चार प्रकृतिओ बंधमा गणवानी छे. हवे गुणस्थानोमां प्रकृतिबंध जणावे छे८७. अजिनाहारकद्विको-ऽनरकत्रिकजातिस्थावरचतुष्क - हुण्डातपसेवार्तनपुंसकमिथ्यात्वो-ऽतिर्यक्स्त्यानद्धिदौर्भाग्यत्रिकानन्तकषायमध्यसंस्थानसंहननचतुष्कनीचोद्योताशुभगमस्च्यायुर्द्विकः सतीर्थायुर्द्विको-ऽवज्रनरत्रिकाप्रत्याख्यानौदारिकद्विको-ऽप्रत्याख्यानावरणोऽशोकारत्यस्थिरद्विकायशोऽसातः साहारकद्विको-ऽसुरायुष्काद्याऽनिद्राद्विकपडसुरद्विकपश्चेन्द्रियशुभगमत्रसनवाऽनौदारिकतनूपाङ्गसमनिर्माणजिनवर्णागुरुल
SR No.023037
Book TitleKarmarth Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1973
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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