SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१ ते व वैक्रियद्विक सहित अगियार योग. यथाख्यातचारित्रमां तेज नव योग, कार्मण अने औदारिकमिश्रयोगसहित अगियार योग होय. हवे मार्गणास्थानोमां उपयोग कहे छे६६. सुरतिर्यग्नरकायते त्रसयोगवेदशुक्लाहारनरपञ्चेन्द्रियसञ्ज्ञिभव्ये चक्षुरचक्षुले श्यापञ्चककषाये चतुरक्षासज्ञिनि एकद्वित्र्यक्षस्थावरे त्र्यज्ञानाभव्यमिध्यात्वसास्वादने केवलद्विके क्षायिकयथाख्याते देशे मिश्र - नाहारे ज्ञान संयमचतुष्कोपशमवेदकावधिदर्शनेमनः केवलद्विक - सर्वाsकेवलद्विका - ज्ञानदर्शनद्विकाऽचक्षुस्त्र्यज्ञानदर्शनद्वय - स्वद्विका - नज्ञानत्रिक - दर्शनज्ञानत्रिकसाज्ञानाऽचक्षुर्मनोज्ञानज्ञानचतुष्कदर्शन त्रिका उपयोगाः । देवगति, तिर्यचगति, नरकगति अने अविरतमां मनःपर्याय अने केवलद्विक - केवलज्ञान अने केवलदर्शन बिना नव उपयोग. त्रसकाय, योग- मन, वचन अने काया वेद-स्त्री, पुरुष अने नपुंसक, शुक्ललेश्या, आहार, मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, संज्ञी अने भव्यमां बार उपयोग. चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, कृष्णादि पांच लेश्या अने क्रोध आदि चार कषायमां केवलद्विकबिना दश उपयोग. चउरिंद्रिय अने असंशिमां बे अज्ञानमतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान अने बे दर्शन-चक्षुदर्शन भने
SR No.023037
Book TitleKarmarth Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1973
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy